Monday, April 18, 2016

चूक


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राजीव रंजन प्रसाद

आज बुखार का दूसरा दिन है। स्वाति रजिंदर को देखने आ रही है। हरिवंश नर्सिंग होम का दूसरा तल्ला और बेड नं. 43। रजिंदर के आस-पास कुछ लोग हैं जो उसकी देखभाल में जुटे हैं। रजिंदर को यह कमरा खाली चाहिए। वह स्वाति से एकांत में कुछ पल बात करना चाहता है। सच कहें, उसे जी भर देखना चाहता है। प्रेम एक पागलपन है, जुनून है। लेकिन वह बीमार आदमी को भी इस कदर मतवाला कर देता है; रजिंदर को देखकर समझ पाना आसान है।

दरवाजे पर खटखट की आवाज़ हुई। स्वाति है, ऐसा रजिंदर ने सोच लिया। अन्दर दाखिल होती नर्स रूटीन चेकअप के लिए आई है। रजिंदर के मुख से उफ! निकलता है।

‘सिस्टर, मुझे कुछ देर के लिए अकेला छोड़ा जा सकता है...,’ वह कातर निगाहों से नर्स को देखता है। नर्स उसके आँखों की बेचैनी भाँप लेती है।

‘आॅफकोर्स, स्वाति ने भी बाहर मुझसे यही कहा! कमाल है, दोनों एक समय में एक साथ एक ही बात सोचते हैं; आई लाइक इट।’

कमरा खाली है और रजिंदर के बिल्कुल सामने बैठी स्वाति रोए जा रही है।

‘पगली, मुझे कुछ नहीं होगा। आई एम फाइन, ठीक...दुरुस्त...चकाचक!’

रजिंदर की बात सुन स्वाति का रोना कम नहीं होता है। अब तो वह फफकने लगी है। रजिंदर जिसने एकांत की ख़्वाहियश में अपने परिजनों को बाहर भिजवा दिया था। सोचता है, यदि उनमें से कोई एक भी होता तो वह स्वाति को इस कदर जार-जार नहीं रोने देता।

स्वाति बोल नहीं रही है, जबकि रजिंदर उसका कहा सुनने को आतुर है। मौन के इस अंतराल में स्वाति के आँखों से आँसू लगातार निकल रहे हैं।

‘क्या हुआ?’

‘‘सौरी रजिंदर, मुझे माफ करना!’

रजिंदर चिहुक कर रह जाता है। स्वाति ने रिवाल्वर से दनादन चार गोलियाँ रजिंदर के सीने में ठोंक दिया है। खून के फव्वारे निकल पड़े। बिस्तर पर खून ही खून।

स्वाति बड़े लाड़ से उसका माथा चूमती है। रजिंदर मर चुका है या नहीं, पता नहीं। लेकिन उसके कंठ में आवाज़ नहीं है। स्वाति पिस्तौल उसके छाती पर रख चुकी है। चारों तरफ लोग हैं और उनसे घिरी हुई स्वाति और रजिंदर। एक सचमुच लाश है, तो एक पूरे होशो-हवाश में जीती-जागती लड़की। स्वाति के चेहरे पर जरा भी खौफ़ का भाव नहीं। वह चुप है, शांत है और रजिंदर के सिराहने इंतमिनान से बैठी हुई है।

रजिंदर ने इससे पहले दर्जनों लड़कियों को ठगा, धोखा दिया। प्यार का नाटक किया, शादी रचाया। सब जगह रजिंदर भारी रहा, लेकिन आज स्वाति ने उसे देखते ही देखते मौत के घाट उतार दिया।

करोड़पति बाप के इकलौते बेटे रजिंदर से इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई। वह मरा होगा तो जरूर यह सोचते हुए ही मरा होगा।
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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...