Wednesday, April 27, 2016

अरुणाचल की भीत पर अर्थ रचते शब्द

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पता है। कविता कोई स्पष्टीकरण नहीं चाहती। व्याख्या और आख्यान पाठकीय पीढि़याँ स्वयं अपने भीतर से रचती हैं। भीत पर आकुलमना ये कविताएँ जब लगीं, तो वह मुझे दिल से शुक्र्रिया कहती दिखीं और मैं दिल से आभार व्यक्त करता रहा....उनका जिन्हें पढ़कर मुझे सोचने-समझने का तजरबा मिला है; ज्ञान तो बड़ी बात है।
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चौका
            - अनामिका

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी 
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़ 
भूचाल बेलते हैं घर 
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर। 

रोज़ सुबह सूरज में 
एक नया उचकुन लगाकर 
एक नई धाह फेंककर 
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी। 

पृथ्वीजो खुद एक लोई है 
सूरज के हाथों में 
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने 
कि लो, इसे बेलो, पकाओ 
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में 
पकाती हैं शहद। 

सारा शहर चुप है 
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन। 
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी 

और मैं 
अपने ही वजूद की आंच के आगे 
औचक हड़बड़ी में 
खुद को ही सानती 
खुद को ही गूंधती हुई बार-बार 
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
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नेता
                  - केदारनाथ अग्रवाल

तुम्हारे पाँव
देवताओं के पाँव हैं
जो जमीन पर नहीं पड़ते
हम वंदना करते हैं तुम्हारी
नेता!
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मुझे कदम-कदम पर
                       - मुक्तिबोध
मुझे
कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बांहें फैलाए!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने....
सब सच्चे लगते हैं,
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर  में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीडा है,
पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,
इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है जिंदगी!
बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ...
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत.... स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियां लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहां जरा खडे होकर
बातें कुछ करता हूँ
....उपन्यास मिल जाते ।
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अपनी असुरक्षा से
                       - पाश
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन दबाकर पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
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आँकड़े
- उदय प्रकाश


अब से तकरीबन पचास साल हो गए होंगे
जब कहा जाता है कि गांधी जी ने अपने अनुयायियों से कहीं कहा था
सोचो अपने समाज के आख़िरी आदमी के बारे में
करो जो उसके लिए तुम कर सकते हो
उसका चेहरा हर तुम्हारे कर्म में टंगा होना चाहिए तुम्हारी
आंख के सामने
अगर भविष्य की कोई सत्ता कभी यातना दे उस आख़िरी आदमी को
तो तुम भी वही करना जो मैंने किया है अंग्रेजों के साथ
आज हम सिऱ्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि
यह बात कहां कही गई होगी
किसी प्रार्थना सभा में या किसी राजनीतिक दल की किसी मीटिंग में
या पदयात्रा के दौरान थक कर किसी जगह पर बैठते हुए या
अपने अख़बार में लिखते हुए
लेकिन आज जब अभिलेखों को संरक्षित रखने की तकनीक इतनी विकसित है
हम आसानी से पा सकते हैं उसका संदर्भ
उसकी तारीख और जगह के साथ
बाद में, उन्नीस सौ अड़तालीस की घटना का ब्यौरा
हम सबको पता है
सबसे पहले मारा गया गांधी को
और फिर शुरू हुआ लगातार मारने का सिलसिला
अभी तक हर रोज़ चल रही हैं सुनियोजित गोलियां
हर पल जारी हैं दुरभिसंधियां
पचास साल तक समाज के आख़िरी आदमी की सारी हत्याओं का आंकड़ा कौन छुपा रहा है ?
कौन है जो कविता में रोक रहा है उसका वृत्तांत ?
समकालीन संस्कृति में कहां छुपा है अपराधियों का वह एजेंट ?
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 बंद खिड़कियों से टकराकर
- गोरख पाण्डेय

घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह
नई बहू है, घर की लक्ष्मी है
इनके सपनों की रानी है
कुल की इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहाँ अर्चना होती उसकी
वहाँ देवता रमते हैं
वह सीता है, सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह
कानूनन समान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े-बड़ों क़ी नज़रों में तो
धन का एक यन्त्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है
उसे चहिए प्यार
चहिए खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह
चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना ?
घर-घर में शमशान-घाट है
घर-घर में फाँसी-घर है, घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह
गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है
हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं ।
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गिरना
                                             - नरेश सक्सेना
चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं। मनुष्यों के गिरने के 
कोई नियम नहीं होते। 
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं
बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो 
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो 
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी 
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो 
अर्थों में गिरो 
यही सोच कर गिरा भीतर 
कि औसत क़द का मैं 
साढ़े पाँच फ़ीट से ज्यादा क्या गिरूंगा 
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह 
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा 
और लोग 
हर कद और हर वज़न के लोग 
खाये पिए और अघाए लोग 
हम लोग और तुम लोग
एक साथ 
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं
इसीलिए कहता हूँ कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़ 
चीज़ों का गिरना 
और गिरो
गिरो जैसे गिरती है बर्फ़ 
ऊँची चोटियों पर 
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ 
गिरो जलप्रपात की तरह 
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए 
अंधेरे पर रोशनी की तरह गिरो
गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए 
खड़े क्या हो बिजूके से नरेश 
इससे पहले कि गिर जाये समूचा वजूद 
एकबारगी 
तय करो अपना गिरना 
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त 
और गिरो किसी दुश्मन पर 
गाज की तरह गिरो 
उल्कापात की तरह गिरो/वज्रपात की तरह गिरो/मैं कहता हूँ 
गिरो।
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हमारी भाषा
                                      - राजेश जोशी

भाषा में पुकारे जाने से पहले वह एक चिडि़या थी बस
और चिडि़या भी उसे हमारी भाषा ने ही कहा
भाषा ही ने दिया उस पेड़ को एक नाम
पेड़ हमारी भाषा से परे सिर्फ एक पेड़ था 
और पेड़ भी हमारी भाषा ने ही कहा उसे
इसी तरह वे असंख्‍य नदियॉं झरने और पहाड़
कोई भी नहीं जानता था शायद
कि हमारी भाषा उन्‍हें किस नाम से पुकारती है

उन्‍हें हमारी भाषा से कोई मतलब न था
भाषा हमारी सुविधा थी
हम हर चीज को भाषा में बदल डालने को उतावले थे
जल्‍दी से जल्‍दी हर चीज़ को भाषा में पुकारे जाने की ज़िद 
हमें उन चीज़ों से कुछ दूर ले जाती थी
कई बार हम जिन चीज़ों के नाम जानते थे
उनके आकार हमें पता नहीं थे
हम सोचते थे कि भाषा हर चीज़ को जान लेने का दरवाज़ा है 
इसी तर्क से कभी कभी कुछ भाषाऍं अपनी सत्‍ता कायम कर लेती थीं
कमजोरों की भाषा कमजोर मानी जाती थी और वह हार जाती थी 
भाषाओं के अपने अपने अहँकार थे

पता नहीं पेड़ों, पत्‍थरों, पक्षियों, नदियों, झरनों, हवाओं और जानवरों के पास 

अपनी कोई भाषा थी कि नहीं
हम लेकिन लगातार एक भाषा उनमें पढ़ने की कोशिश करते थे
इस तरह हमारे अनुमान उनकी भाषा गढ़ते थे
हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है
हम सोचते थे कि इस भाषा से 
हम पूरे ब्रह्मांड को पढ़ लेंगे।
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आवश्यक
- अज्ञेय

जितना कह देना आवश्यक था
कह दिया गया : कुछ और बताना
और बोलना-अब आवश्यक नहीं रहा।
आवश्यक अब केवल होगा चुप रह जाना
अपने को लेना सँभाल
सम्प्रेषण के अर्पित, निभृत क्षणों में।
अब जो कुछ उच्चारित होगा, कहा जाएगा,
सब होगा पल्लवन, प्रस्फुटन
इसी द्विदल अंकुर का।
बीनते हुए बिखरा-निखरा सोना
फल-भरे शरद का
हम क्या कभी सोचते हैं : ‘वसन्त आवश्यक था?’
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सावधान
                                    - भवानीप्रसाद मिश्र

जहाँ-जहाँ
उपस्थित हो तुम

वहाँ-वहाँ
बंजर
कुछ नहीं रहना चाहिए

निराशा का
कोई अंकुर फूटे जिससे
तुम्हें
ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए !

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...