जब हम अपनी आँख बंद कर लेते हैं, तो दूसरे लोग हमें प्रायः डूबो देते हैं
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राजीव रंजन प्रसाद
युवा राजनीतिक मनोभाषाविश्लेषक
सारे चित्र गुगल से साभार |
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राहुल गाँधी: मनोभाषिक रिपोर्ट
- विषय/मुद्दे के अनुरूप अथवा अपने कहे की संवेदनशीलता भाँपने की जगह राहुल गाँधी अक्षरों का हिसाब लगाकर बोलते हैं
- उनकी भाषा में लय और लहजा किसी भी तरह एक क्रम, संतुलन अथवा अन्विति में नहीं होते हैं
- जिस तरह दूध अपना रंग बदले बगैर ही दही में बदल जाता है; वैसे ही राहुल का भाषण सहज होते हुए भी नकारात्मक प्रभाव डालता है।
- राहुल बोलते समय भीतर से बहुत तीव्र प्रतिक्रिया देते हैं जिसे वाणी के माध्यम से तरल/हल्का बनाने में सहज सम्प्रेषणीयता गायब हो जाती है
- राहुल गाँधी के दिमाग में बाहरी बातों का दबाव इतना अधिक होता है कि वे अपनी बात कहने से चूक जाते हैं
- राहुल गाँधी में परिणाम जानने की उत्तेजना और जल्दबाजी अधिक दिखाई देती है जिस कारण वे जनता से संवाद करने की जगह उनसे अपने बारे में समर्थन/सहमति माँगने लगते हैं
- राहुल गाँधी प्रायः अपनी ही देहभाषा के खिलाफ़ जाकर बोलते है जिससे उसकी प्रभावशीलता अधिक प्रभावी होती है
- उनके भीतर की संकोचशीलता उन पर इस कदर हावी रहती है कि वे अपने व्यक्तित्व-व्यवहार के आकर्षण को खुद-ब-खुद कम कर डालते हैं
- राहुल गाँधी के निर्णय में आत्मविश्वास की कमी देखने को मिलती है जिससे यह साफ झलकता है कि वे चारो तरफ से बुरी तरह मीडियावी प्रबंधन से घिरे हुए हैं
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हार-जीत के अपने दाँव-पेंच होते हैं। असली योद्धा परिणाम की नहीं तैयारी के बारे में मुस्तैदी से सोचता है। राहुल जब इस घड़ी चारों तरफ से बुरी तरह आलोचना से घिरते जा रहे हैं; उन्हें 2019 के चुनाव-तैयारियों के बारे में सोचना चाहिए। उत्तर प्रदेश में वे और उनकी पार्टी पूरी सख्ती के साथ अपने को ‘माइनस’ कर चले। केन्द्र में उनका प्रतिद्वंद्वी बुरी तरह कमजोर है और वह विकल्पहीनता की स्थिति से गुजर रहा है। राहुल यदि उत्तर प्रदेश के चुनाव में नहीं कूदते हैं, तो यह सीधे भाजपा के लिए साख का सवाल हो जाएगा। कांग्रेस इस बचे समय में लोकसभा के लिए अपनी तैयारियों को मुस्तैद करे। अपनी कमियों को तलाशे और उनमें तत्काल सुधार करे। वह ‘शार्टकट’ से बचे तो ही आने वाले समय में उनकी छवि साफ-सुथरी हो सकती है। वह इन बीच के समय में युवा और कर्मठ युवाओं को अधिक मौका दे।
भारत की राजनीति में कांग्रेस इसलिए भी सफल होगी कि नरेन्द्र मोदी और अरविन्द केजरीवाल दोनों सत्ता में लगभग विफल साबित हो चले हैं। राजनीति कई बार त्याग और समर्पण की माँग पहले कर बैठती है। इस बार ऐसी ही अग्निपरीक्षा है जिसमें कांग्रेस को सोच-समझ कर निर्णय लेने की आवश्यकता है। यूपी चुनाव में अनाप-शनाप और शाही खर्च से सर्वथा बचने की जरूरत है। सबसे पहले राहुल गाँधी को चाहिए कि वे प्रशांत किशोर के पीआरगिरी के झाँसे में न आए। वे तत्काल प्रशांत किशोर का साथ छोड़ अपने पाँव के नीचे की ज़मीन बाँधे। अपनी युवा इकाइयों को मजबूत करें। युवा भारत के सपनों को समझने के लिए दौरा, गोष्ठी, यात्रा, सम्मिलन करे। वह हर वर्ग और देसी भूगोल के युवाओं के पास जाएँ। बिना किसी कटुता या कि राजनीतिक प्रपंच के युवा धड़कनों को सुने। वह आज से पहले के वर्षों में जितना कुछ कहते आए हैं, वे सब एक-एक कर करना शुरू कर दे।
ध्यान रहे, देश का प्रधानमंत्री वोट से नहीं बनता बल्कि वह अपनी निष्ठाा, समर्पण, ईमानदारी, योग्यता और भीतरी सचाई के बल पर जनता के मन-मस्तिष्क पर राज करता है। राहुल औरों की तरह झूठे और गलाबाज नहीं हैं, यह साबित करने के लिए सचमुच की कार्रवाई करनी होगी। रचनात्मक कार्यक्रम करने होंगे। जनता की स्थिति-परिस्थिति का सही आकलन करते हुए दूरगामी योजना सिर्फ बनाने ही नहीं अपितु उन्हें क्रियान्वित भी करना होगा। गरीबी नाम लेने से नहीं मिटती बल्कि इसके लिए खुद गरीब होना होता है। स्वयं अभाव और तगहाली के दुःख-तकलीफ महसूस करने होते हैं। राहुल को अपने भीतर इस सोच को पैदा करने में अधिक समय लगा, अब उसे व्यावहारिक रूप देने की जरूरत है। राहुल खुद को ‘लिटमस पेपर’ नहीं बनाएँ, जनता अब ऐसा नेता चाहती है। आज की तारीख में भारतीय जनता राहुल गाँधी से बाएँ-दाएँ की जगह सामने देखने की गुजारिश कर रही है।
बहरहाल, कांग्रेस दल को जितना नुकसान होना था, हो चुका। अब उसे पुरानी कहानी की चिंता छोड़ आगे बढ़ना है। राहुल से हाल के वर्षों में देश की आशाएँ बँधी हैं लेकिन खुद राहुल अपने से दूर होते चले गए हैं। आज भी वह देसी लहजे में बोलना नहीं सीख पाए हैं क्योंकि उन्हें सलाह देने वाले अंग्रेजी के फार्मूलेदार हैं। वह भारतीय बोली-वाणी के मुहावरे और व्यंजनाशक्ति को नहीं परख और साध पाए हैं जो राजनीति में नेतृत्व करने का पहला पाठ है। वे जो कहें उसमें समझाइश का स्वर हरग़िज नहीं रहना चाहिए। देश की हाल-स्थिति का ज्ञान तकनीकी भाषा अथवा कृत्रिम तरीके से वे जनता को न कराएँ। वह उसके भाव में घुलें और उसके मनोनुकूल अपनी छवि बनाकर ‘जनता का आदमी’ की तरह अपनी बात कहें। वे आक्रामक होने से पहले यह देख लें कि यह वार-प्रहार किए बगैर क्या विनम्रता के साथ किसी को मात नहीं दिया जा सकता है। आपसी नुक्ताचीनी से बेहतर है कि जनता की ओर से अपने को उनका प्रतिनिधि मानकर बोलें। कांग्रेस अपने इतिहास-वाचन की आदत से उबरे, यह भी जरूरी है। वह जनता को अपनेआप महसूस होन दे-‘फिल कांग्रेस’। राहुल गाँधी बार-बार अपना लुक बदलने से बाज आएँ। जनता के समक्ष भाषण देते समय वे अपने ऊपर पूरा नियंत्रण रखें। बोलते-बोलते एकबारगी चिल्लाने वाली उनकी आदत बचकानी हरकत है जो उनकी अधीरता को दर्शाता है। अतएव, वह सौम्य तरीके से और मधुर भाषा में जनता के सामने अपनी बात रखें। वह जिस क्षेत्र के लोगों के सामने बोलने जा रहे हैं वहाँ के लोगों के सोचावट एवं मानसिकता से अपने भाषण का मेल जरूरी कराएँ।.....
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