Monday, May 16, 2016

असम में हारी केन्द्र सरकार

झूठा-सच गल्प
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राजीव रंजन प्रसाद


असम विधानसभा चुनाव का परिणाम लगाए जा रहे कयास से विपरीत साबित हुआ है। एग्जिट पोल फेल हुए हैं और असम एक बार कांग्रेस सरकार के पाले में है। .....बीती रात भाजपा ने बैंड-बाजे की पूरी बंदोबस्त कर रखी थी। आतिश के ढेरों संसाधन जुटाए गए थे। आज वे सब के सब कूड़े के ढेर मालूम दे रहे हैं। यह विचार-मंथन करने की बात है कि भारतीय राजनीति की चुनावी भविष्यवाणी बाँचने वाले एग्जिट पोल कंपनियों को जनता ने ठेंगा दिखा दिया है। एक बात साफ हो गया है कि बिहार के बाद असम की राजनीति में आया यह गंभीर उलटफेर नरेन्द्र मोदी के ‘अच्छे दिन’ के दावे की पोल खोलकर रख देता है। 

इस पर विस्तारपूर्वक बातचीत और विश्लेषण के लिए वाक्पटु और लेखनसिद्ध विश्लेषकों की कमी नहीं है। उन्हें इस पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट पेश करनी चाहिए। एक बात तो साफ हो चली है कि जनता ‘सेंटीमेंटल’ नहीं है। कोरी भावुकता की उम्र छोटी होती है और वह बीत चुकी है। दो वर्ष के उपरांत भी देश की स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं हुए हैं। प्रचार-सामग्री और मीडिया-प्रबंधकों के बूते थोकभाव तथ्यों, आँकड़ों, ग्राफों, ग्राफिक्सों, टेबुलों आदि को संचार-माध्यमों से उलीचती केन्द्र सरकार को अब ‘आत्ममंथन’ से आगे बढ़ ‘आत्मालोचना’ की जरूरत है। प्रधानमंत्री की सफेद दाढ़ी का सुफियाना रंगत और उनके भाव-भंगिमा के सहज आकर्षण दिन-ब-दिन डीम होते जा रहे हैं। उनके बोल की स्वाभाविक त्वरा एक अजीब संकोच से भरती जा रही है। यदि ऐसा ही सबकुछ चलता रहा, तो भारतीय राजनीति की कायापलट का स्वप्न देखने वाले लोग और खासकर नवशिक्षित युवा पीढ़ी लकवाग्रस्त हो जाएगी। 

नरेन्द्र मोदी राजनीतिक में जबर्दस्त उभार के साथ तब आए, जब भारत में लोकतांत्रिक ढाँचा अविश्वसनीय ढंग से अप्रासंगिक हो चला था। कांग्रेस हिंदुस्तानी राष्ट्र के रीढ़ की हड्डी चबा चुकी थी, तो जनता के आत्मबल और मनोबल को आर्थिक उदारवाद की रखैलों ने कब्जिया लिया था। बीच में आई भाजपा नित राजग सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़ सारे नेता अपनी अक्षमता के जागीरदार थे। उनकी सोच दूरगामी नहीं थी क्योंकि उनकी राजनीतिक परवरिश और राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया खोखली रही थी। ऐसे नेताओं को मुँह की खानी ही थी, सो 1999 में वे सूर्योदय की ढोल पीटते हुए आए और 2004 में दुबारा मंगलाचरण गाने से पूर्व ही ढेर हो गए। फिर आई कांग्रेस जो जनता के लिए नई नहीं थी। राहुल गाँधी एक नौजवान दिख रहा था जिस पर वे भरोसा जताने का विकल्प ले सकते थे। इसी आस में जनता ने कांग्रेस को दो लोकसभा शासनकाल का प्रत्यक्ष मौका दिया; लेकिन अंततः यह भी ढाक के तीन पात साबित हुए और राहुल गाँधी अपने व्यक्तित्व-व्यवहार और नेतृत्व आधारित कार्यशैली एवं प्रभावशीलता में लगातार पिटते चले गए। इसी समय आम आदमी पार्टी का अवतार हुआ जो एक ‘इंटेलेक्चुअल,स ट्रीटमेंट’ था लेकिन इसकी सतह किताबी होने के नाते इस पर लोकतंत्र की सच्ची इमारत खड़ी कर पाना संभव नहीं हो सका। अरविंद केजरीवाल का मीडिया फ्रेम मोहग्रस्तता और एकरेखीय नौकरशाही उजली टोपी और ग्रामीण मोफलर बाँधे रखने के बावजूद उनकी छवि को असंदिग्ध नहीं बना सकी। 

यह ध्यान रखना होगा कि चेतस जनता जादू के जद में नहीं आती। नरेन्द्र मोदी मंत्रमुग्धानी व्यक्तित्व के सहारे राजनीति में अप्रत्याशित बहुमत लाने में सफल रहे, लेकिन उनके कुनबागार(मंतरी-संतरी) यह भूल गए कि जनता जवाब माँगती है, जवाबदेही चाहती है। असम विधानसभा परिणाम ने खुले तौर पर केन्द्र सरकार को यह संदेश दिया है कि-‘उन्नीस का लोकसभा चुनाव सभी दलों का नस ढीला और कमर खोल देने वाला होगा।’....

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...