बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के लिए...
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राजीव रंजन प्रसाद
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हम ज्ञानवाही चेतना के अणु थे
और पदार्थ की संरचना के मुख्य शीलगुण
संग्राहक-सूचना, जानकारी, तथ्य के
हमारे दिमाग की चिकनी मिट्टी से
बनाए जा सकते थे खाद
आने वाली पीढ़ी के निर्माण के लिए
हमारे अस्थि-मज़्जा में भरी थी स्याही
जो लिखने के काम आती
हम अपनी भाषा में विचरते-
सभ्यता-संस्कृति की आनुषंगिक इकाई बन
हम ऊध्र्वावाही चेतना के कंठ थे
जिसकी आवाज़ में पसरा समकालीनता का आकाश था
जो धूप-छाँव की सिलवटों में
उमगना, उठना और आगे बढ़ना जानता था
हम समर के महान योद्धा थे
जो हरदम द्वंद्व से लड़ते
विचारों से टकराते
परम्परा के ऊपर बहस करते
और अंततः पाते वाद-विवाद-संवाद का मुख्य प्रतिपाद्य
हम जो भी थे
किन्तु भोले कतई न थे
हम अपनी सरजमीं के बेज़ा इस्तेमाल पर
सम्प्रभुता के हनन पर
मूल्यों के विखण्डन पर
प्रतिरोध का कर सकते थे भयंकर धमाका
हम टूट पड़ते
जैसे टूट पड़ती है-मूसलाधार बारिश
रेगिस्तानी रेत में बवंडर
हम टूटकर चीखते
जैसे शंख से गुजरी हवा करती है शंखनाद
हम सदैव शब्दार्थ में स्फोट करते
पाठक, श्रोता, दर्शक के दिलोंदिमाग पर
...लेकिन यह हो न सका
क्योंकि जो हमारी संभावनाओं के प्रस्तोता थे
वह निर्णय के वक्त में चुप्पी साध गए
ऐन मौके पर ले लिया संन्यास
विश्वविद्यालय ने स्वागत की जगह गाया-विदाई गीत
यह जानते हुए कि
डोली में बैठ निकली बेटी
पुनः पीहर नहीं लौटती!!!
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