Monday, October 17, 2016

युवा उमरिया की पलछिन: आजादी के बाद

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राजीव रंजन प्रसाद के काॅपी नोट्स 
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स्वाधीन भारत का सप्तम दशकभूखी पीढ़ीऔरविद्रोही पीढ़ीसे शुरू हुआ था। ये नाम अत्यंत सार्थक साबित हुए। इसके बाद सच को सच कहने की ताकत आई। आत्मबल में इज़ाफा हुए। इस चेतना के उत्तरोत्तर प्रचार-प्रसार के कारण व्रिदोही तेवर, आक्रोश, गुस्सा, विरोध आदि ने जनज़्वार का रूप धारण कर लिया। लेकिन यह चेतस पीढ़ी भी कई अंतःविरोधों से घिरी हुई थी। डाॅ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय की दृष्टि में, ‘‘भारतीय युवामानस ने अन्याय के विरुद्ध आवाज़ ऊँची तो की, वह भभका, भड़का, गरजा, उछला भी लेकिन उनके व्यक्तित्व, व्यवहार और नेतृत्व में संतुलन(रैस्ट्रेज) का अभाव रहा।कुछ भी हो, उस पीढ़ी ने अपने समय की विसंगतियों को सिर्फ छुआ नहीं, बल्कि प्रहारात्मक मुद्रा में उन पर टूट पड़े। उन्होंने स्वाधीन भारत में आमूल परिवर्तन के लिए अपना वर्तमान दाँव पर लगा दिया। 

यह नई परिघटना थी। इस चेतस युवा की आगामी पीढ़ीयुवा तुर्कबनकर उभरी। इस युवजन का नेता जयप्रकाश नारायण थे। सम्पूर्ण क्रांति के उद्गाता। कांग्रेस की चूलें हिलीं, तो 1977 में कांग्रेस केन्द्र की सत्ता से बेदख़ल हो गई। जनता ने अपना निर्णय सुना दिया, इंदिरा हटीं नहीं, तो जनता ने निर्मम जनादेश सुनाते हुए उन्हें सत्ता से हटा दिया। यही वह समय था जब जनतंत्र में राजनीति चेतना से लैस कई युवा उभरे और जनता के बीच अत्यंत लोकप्रिय हुए। बाद में ऐसा देखने में आया कि साठ और सतक के दशक की युवा पीढ़ी में असंतोष, क्षोभ, हताशा, तनाव, कुंठा आदि से उपजे क्रोध और विरोध-भाव तो थे; लेकिन विचार और दिशा सम्बन्धी चिन्तन-प्रतिमा अधिसंख्य में नहीं थीं; लिहाजा उनका अंधा क्रोध अपने को सिर्फस्खलितकरने की विवश और अचेतन क्रिया मात्र बनकर रह गई। यह सही है कि व्यक्तित्व को सामाजिक लड़ाई में झोंक कर या उसका सहभागी बनाकर स्वयं को महत्त्चाकांक्षाओं से मुक्त किया जा सकता है, पर यह आसान कार्य नहीं है। दरअसल, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा की भूख बहुत प्रबल होती है। यह भूख नाम की, पद की, पैसे की या प्रदर्शन की हो सकती है। जब यह बुभृक्षा तृप्त नहीं होती तबआक्रोशउत्पन्न होता है जो अंतरस्थित आकांक्षा या बुभृक्षा के अनुपात में घटता-बढ़ता है। 

अतः यह मानना ही पड़ेगा कि अपनी जिस युगांतकारी और परिवर्तनकामी भूमिका से युवजन ने सन् 77 में भारतीय लोकतंत्र को नेहरू-इंदिरा कब्ज़ेदारी से छुड़ाया; वही पीढ़ी सत्ता के सम्मोहन, प्रभाव और विलासिता में इस तरह आकंठ डूबी कि विचार और विचारधारा के प्रश्न स्वयं कठघरे में खड़े हो गए। मनुष्य की मूलप्रवृत्ति में विद्यमान शील, स्वभाव, आचरण और चरित्र आदि में खोखलापन घर करता चला गया। फलस्वरूप, नब्बे के बाद जन्मी पीढ़ी हद निकम्मी साबित हुई। वर्तमान राजनीतिक अन्तर्धारा में वह अपनी राजनीति-सामाजिक चेतना एवं बोधवृत्ति को लेकर सजग नहीं है, तो उसकी चित्तवृत्ति में समाकलीनता से जुड़ाव सम्बन्धी प्रत्यय नदारद है। अतएव, आज की शब्दावली मेंयुवाहोना फ़रेबी होना है। फ़रेब का मायने स्पष्ट है। अर्थात् जो वास्तविकता है उसे स्वीकार करने से इनकार। यानी जो झूठ एवं ग़लत है उसके होने का दावा ठोंकना अथवा उनका ही अविचारित संगत करना मौजूदा पीढ़ी की भाषा मेंयुवाकहलाना है।

युवा शब्द का राजनीतिक अर्थ-सन्दर्भों में मायने-मतलब क्या बनता है यह देखना और भी दिलचस्प एवं महत्त्वपूर्ण है। दरअसल, भारतीय राजनीति में युवा मोर्चे पर हर किस्म के धत्कर्म की संलिप्तता है, खुली छूट है। तब भी देश में एक भी सही ढंग का प्रभावीयुवा नेतृत्वनहीं है। सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों के पाॅकेटमार ज़मात है। यह युवतम पीढ़ी अपने आकाओं से मिले रुपयों पर ऐश-मौज करने की महत्त्वाकांक्षा पालती है, भौतिक रंग-रंगिनियों में रचे-बसे होने का ख़्वाब देखती है। पहचान के इस संकट के बावजूद भारतीय राजनीति मेंयुवाशब्दावली की घुसपैठ सर्वाधिक है, प्रयोग बहुदलीय है। यह और बात है, शब्दावली का वर्चस्व लिपि के विकसित होने से पहले शुरू हुआ या वर्णाश्रम-व्यवस्था ईज़ाद किए जाने के बाद; यह कह पाना मुश्किल है। किन्तु यह कटु सचाई है कियुवाशब्दावली आज यदि भाषिक विधान में प्रयुक्त अथवा व्यवहृत है, तभी यह संभावना भी दृढ़ है कियुवराजशब्द को चलन में बनाए रखा जाए जो एकअलोकतांत्रिकशब्द है, अमर्यादित भाषा-प्रयोग है। वास्तव में, यह सामाजिक-सांस्कृतिक मानसिकता पर थोपी गई राजतांत्रिक पदछाप का उत्कृष्ट नमूना है जिसे गुलाम-भाषा के चाटुकारों ने राजनीतिक हित-लाभ के लिए रचा-बुना है। 

कहना होगा कि इन युवराज/युवराजियों का जलवा या ठसक भारत में आज भी पुराने राजवाड़ों और रियासत की तरह है। एक उदाहरण के तौर पर आज से एक दशक पूर्व चर्चा में आए उस घटना को लिया जा सकता है। उत्तर प्रदेश केयुवक कांग्रेसके अध्यक्ष नदीम असरफ जायसी ने यह कहकर प्रत्येक कार्यकर्ता से दस हजार रुपए माँगा कि जो 10,000 रुपए देगा वह प्रियंका के साथ डिनर करने के साथ फोटो खिंचावाएगा, जो 5,000 रुपए देगा वह केवल डिनर ही खाएगा। ऐसा ही सौदा अनुराग ठाकुर और अरविन्द केजरीवाल ने पिछले दिनों अपनी लोकप्रियता को भुनाने के मकसद से किया। दरअसल, यह प्रवृत्तियाँ गुलाम मनोवृत्तियों की अभिव्यक्ति है जिसका सम्बन्ध राजसत्तात्मक विचारधारा से है, आधुनिक लोकतंत्र से कदापि नहीं। विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि इस बारे में प्रतिरोधात्मक स्वर बुलन्द करना आसान नहीं रह गया है। आज हर राजतांत्रिक कायदा-कानून लोकतंत्र के पोशाक-परिधान में झक सफेद नज़र आता है, तो वहीं वंश-वंशावली के आधार पर राजनीतिक कब्जेदारी विश्वास एवं भरोसे का आधुनिक प्रतीकशास्त्र गढ़ चुके हैं। जबकि इस देश में युवा आबादी 55 करोड़ है। प्रश्न है, कथित युवराजों की तादाद ऊंगली पर गिनने योग्य क्यों है? और जोमीडियावी युवराजहैं उनकी इस सवा अरब आबादी के प्रति चिन्ताएँ कैसी हैं, चिन्तन क्या है? क्या शेष आबादी के लिए उपलब्ध आँकड़ों के ताजा सर्वेक्षण के आधार पर वोट देने की उम्र में दाख़िल हो जाना मात्र हीयुवासाबित होना है? यदि नहीं, तो भारतीय राजनीति में सामान्य युवजन की भूमिका, सहभागिता एवं नेतृत्व हाशियागत क्यों है? क्यों उन्हें सही एवं सार्थक प्रतिनिधित्व नहीं हासिल है? क्यों अबतक युवजन आबादी एक सर्वमान्य नेता, संगठन और नेतृत्व के रूप में नहीं उभर सका है अथवा जिसकी वैचारिक स्थापनाएँ या विचारधारा स्पष्ट एवं दृष्टिगोचर नहीं है? क्या वजह रही है कि भारतीय राजनीति के प्रति युवा उदासीनता में लगातार बढ़ोतरी हो रही है? क्यों कुछ गिने-चुने किस्म केअयोग्यएवंअपात्रकिस्म के युवा ही राजनीतिक कृपापात्र बनकर हमेशा संसद अथवा राज्य विधानमण्डलों में प्रवेश पा जाने में सफल हो जा रहे हैं? प्रश्न, यक्ष प्रश्न...लेकिन चारों तरफ मौन, सन्नाटा एवं गहन अंधकार का आलम है। 

इस चुप्पी को तोड़ने के लिए एक भारी-भरकम चोट चाहिए। एक जीवंत आन्दोलन। सम्पूर्ण क्रांति की तरह एक परिवर्तनकामी लोकतांत्रिक संग्राम। जेपी की तरह जीवट नेता चाहिए कि श्री अण्णा की तरह करिश्माई व्यक्तित्व। अतः यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आज कीयुवाशब्दावली में बिना पुराने अर्थ-बोध को जगाए कोई नया कारनामा नहीं किया जा सकता है; विरोध, विद्रोह, प्रतिरोध, आन्दोलन अथवा क्रांति आदि तो इसके बाद के सहज-स्वाभाविक चरण हैं जिसके प्राणवान एवं बलवती होने के बाद ही ढर्रे की राजनीति में आमूल-चूल बदलाव संभव हो पाता है। इसके लिए पुरानी स्मृतियों को टटोला जाना चाहिए जिस पर धुंल के धुंध जमे पड़े हैं। जो हमारी आस्थागत लगाव एवं विश्वास में कमी के कारण बिसरते जा रहे हैं। यथाः  

1.
बलिया जनपद के नगवां गाँव में पैदा हुए मंगल पाण्डेय ने बैरकपुर छावनी में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ विद्रोह कर संघर्ष का बिगुल फूँकते हुए 29 मार्च, 1857 को अंग्रेज अधिकारी एजूटेण्ट को गोली मार दी थी। उन्होंने 34वीं पैदल सेना के सिपाहियों का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का बिगुल फूँका था। विद्रोही मंगल पाण्डेय को 8 अप्रैल, 1857 . को सरेआम फाँसी पर लटका दिया गया।

2.
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।।

उपर्युक्त पंक्तियाँ याद दिला जाती है काकोरी ट्रेन डकैती को, जिसने अंग्रेज शासन को हिलाकर रख दिया था। लखनऊ से करीब 16 किलोमीटर दूर स्थित काकोरी। और रास्ते में ही पड़ता है काकोरी शहीद स्मारक। 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गाँधी ने बाजनगर गाँव के पास इस ऐतिहासिक स्थल पर शहीद स्मारक का शिलान्यास किया। आज इस स्मारक की दुर्दशा हम सबको शर्मसार कर देती है। शहीदों की याद में बने इस शहीद मंदिर के प्रांगण में तो पानी है प्रकाश की समुचित व्यवस्था। प्रशासनिक उपेक्षा के शिकार इस स्थल पर यहाँ तक कि स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस पर राष्ट्रध्वज तक नहीं फहराया जाता। 19 दिसम्बर को शहादत दिवस के नाम पर एक औपचारिक समारोह करके कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है और फिर इसे अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है।

3.
‘‘देश की बलिवेदी पर हमारे रक्त की आवश्यकता है। मृत्यु क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के अलावा कुछ नहीं। इसलिए मनुष्य मृत्यु से क्यों डरे? दुःख एवं भय क्यों मानें? यह तो नितान्त स्वाभाविक अवस्था है। उतनी ही स्वाभाविक जितनी प्रातःकालीन का सूर्योदय। यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूँ कि हमारी मृत्यु व्यर्थ नहीं जाएगी।’’
                (फाँसी पर चढ़ने से पहले राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी द्वारा एक आत्मीय को लिखा गया पत्र)

राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी 17 दिसम्बी को फाँसी दी गई थी। बाद में इनका शव फाँसी घर से पश्चिम की ओर खुले मैदान में छोड़ दिया गया था। जिले के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने बाबू ईश्वर शरण के नेतृत्व में लाहिड़ी के दूर के रिश्ते के मामा की उपस्थिति में शव को बुचड़घाट ले जाकर विधि पूर्वक अन्त्येष्टि की थी। आजादी के बाद हर वर्ष 17 दिसम्बर को फाँसीघर में कार्यक्रमों का सिलसिला होता रहता है। पुण्यतिथि के अवसर पर कभी राजनीतिज्ञों द्वारा तो कभी प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा इस पावनस्थली को स्मृति के रूप में संजोने की घोषणाएँ की जाती रहीं पर अब तक कोई ठोस कार्य नहीं हुआ है अगर कुछ हुआ भी तो वहखाऊ-कमाऊनीति के भेंट चढ़ गया।

4.
तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेदाद से,
 चल दिए सूए-अदम जिन्दाने फ़ैजाबाद से

ये अन्तिम बोल हैं आजादी के वीर योद्धा अशफाक उल्लाह खाँ के जिन्होंने मुस्कुराते हुए 19 दिसम्बर, 1927 को फैजाबाद जेल में फाँसी का फंदा चूम लिया। वतन की खातिर अपने प्राणों की आहुति देने वाले अशफ़ाक की ज़िन्दादिली बेमिसाल थी। फाँसी के एक दिन पूर्व मिलने आये अपने एक साथी को दिलासा देते हुए उन्होंने समझाया था, ‘‘मरना तो एक दिन सभी है, खुदा ने भेजा था, अब वापस बुला रहा है।’’

5.
जब देश की आजादी की लड़ाई का सबसे महत्त्वपूर्ण मुकदमा लाहौर कांस्प्रेसी केस शुरू हुआ, तो उसका फैसला 7 अक्तूबर, 1930 को सुनाया गया। इस केस में भगत सिंह, राजगुरु सुखदेव को फाँसी हुई तथा डाॅ. गया प्रसाद कटियार, शिव वर्मा, जयदेव कपूर सहित 7 लोगों को आजीवन कारावास की सजा हुई। भगत सिंह से अंतिम मुलाकात का वर्णन डाॅक्टर गया प्रसाद ने की है, ‘‘एक रात अचानक हमारी काल कोठरियों के ताले खुले हमारे साथियों को फाँसी देने से पहले गोरी सरकार हमें कहीं दूर भेज देना चाहती थी। अंतिम भेंट के समय यह सोच कर कि अब यह साथी कभी देखने को नहीं मिलेंगे हमारी आँखों में आँसू गए तो भगत सिंह ने कहा, ‘‘भावुक होने का समय नहीं है। मेरा क्या है? मैं तो कुछ समय बाद फाँसी पर झूल जाऊंगा। आप लोगों पर ही मिशन का उत्तरदायित्व है आपसब को हार-थक कर बैठना नहीं है।’’

6.
    
'वतन के पतन की जो बीमारियाँ हैं,
बड़ी इन सबों में जमीदारियाँ हैं,
किसानों की सूखी हड्डियाँ हैं कहती,
लहू चूसने की ये पिचकारियाँ हैं।

देश की आजादी तथा जमींदारी प्रथा के अत्याचार से लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए इन पंक्तियों को आजादी के मतवाले श्रीराम देव पाण्डेय जेल के अन्दर(तसला की थाप पर) गाकर नौजवानों में जोश भरते थे। वह दौर था सन् 1942 केअंग्रेजों भारत छोड़ों आन्दोलनका। नौजवान इस आन्दोलन की आँधी में अपने को पूरी तरह से समर्पित कर चुके थे। कोई चाह थी, कोई इच्छा। था तो सिर्फ जुनून आजादी का, भारत माता को अंग्रेजी गुलामियत की बेड़ियों से मुक्ति दिलाने का जो उनके कड़े संघर्षों, त्याग, तपस्या से साकार भी हुआ।

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