नवागत प्रोफेसरर्स,
हिंदी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।
आपकी पदोन्नति हुई और अब आप बढ़ी हुई तनख्वाह पाएंगे; बधाई! आप इसी के लिए तमाम करम करते हैं, आगा-पीछा निर्णय लेते हैं, सचाई टालते हैं, हकीकत से मुँह चुराते हैं; ताकि आपका अपना हित सध सके, आप अपनी स्वार्थ की पूर्ति कर सके। लेकिन हमारा दोष क्या रहा है। हमने भी तो कभी आपके खिलाफ़ कभी कोई असम्मानसूचक शब्द प्रयोग नहीं किया। हाँ, आपके फैसले का चुपचाप इंतजार करते रहे। आप सांत्वना देते नहीं थकते कि आप सबका साक्षात्कार अगले कुछ दिनों में हो जाना है। व्यक्तिगत तौर पर आपसबों ने मुझे कहा, तुम अच्छे विद्यार्थी हो और संयोगन अच्छ मेरिट के साथ दावेदार भी। ओह! मंच के पुरस्कर्ता, सेमिनारों के तालियों के आस्वादक, विद्याार्थियों के जेहन में भाव-संवेदना के कलात्मक आख्यान प्रस्तुत करने वाले स्नेही प्राध्यापक; आप सब इतने बहुरुपिया बनकर कब तक जिंदा रहेंगे और हम कब तक अपने हक-हकूक से बाहर। क्योंकर आपसब हम और हमारे जैसे जरूरतमंद योग्य लोगों के पक्ष में नहीं बोलते, उनके साथ खड़े नहीं होते। आपके चेहरे तमाम मुस्कुराहटों के बावजूद रक्तरंजित है। आप हम-सबके परोक्ष कत्लेआम के कारण हैं, अंतहीन पीड़ा के सर्जक हैं।
आपको हम कतई माफ नहीं कर सकते, आपके ढोंग और पाखंड को कभी स्वीकार नहीं कर सकते। आपकी सहानुभूति आपको मुबारक। पर याद रहे, आप सबने हमारा भविष्य खा लिया है, यह पचेगी कभी नहीं।
राजीव
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राजीव
रंजन प्रसाद
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संचार के
साथ भाषा का नाभिनाल रिश्ता है। वर्तमान समय में भाषा संचार के साथ सहोदर भूमिका
में दिखाई दे रही है। भाषिक व्यवस्था (लांग) एवं भाषिक व्यवहार (पैरोल) की दृष्टि
से देखें, तो
इन्होंने इस उत्तर शती में अपेक्षित से कहीं अधिक अप्रत्याशित बदलाव को सिरजा है।
साथ ही, तकनीकी
एवं प्रौद्योगिकी आधारित वैज्ञानिकता ने नई संवृत्तियों (फिनोमिना) को जन्म दिया
है। यह अन्तर सिर्फ ‘सरफेस’ तक नहीं सीमित है, अपितु ‘कोर स्ट्रक्चर’ तक इसका असर देखा जा सकता
है। आधुनिक समय में तर्क एवं विवेक आधारित चिन्तन-दृष्टि का बाहुल्य है जिसने
अधिरचना और मनोरचना दोनों को प्रभावित किया है। इसकी सबसे अच्छी परिणति
है-लोकतंत्र यानी ‘डेमोक्रेसी’। लोकतंत्र की आधारभूमि
है-समानता, स्वतन्त्रता
एवं विश्वबंधुत्व। सचाई है कि भारतीय धरातल पर आरंभ से ही इनका मुखर वाचन होता रहा
है, लेकिन यह
प्राप्य सबको नहीं था। कहना न होगा कि आधुनिक लोकतंत्र की संकल्पना ने भारतीय
जनसमाज का नक़्शा बदलकर रख दिया है। संविधान की लिखित प्रामाणिकता ने सम्पूर्ण
आर्यावत को आजादी के पूरेपन से रंग दिया है। समानाधिकार की इस संघर्षपूर्ण स्थिति
को साधने में भारतीय स्वाधीनता संग्राम से जुड़े, जुझे, लड़े और खेत हुए राजनीतिक महापुरुषों के अतिरिक्त इस सहस्त्राब्दी में
‘आईसीटी’, ‘डीएसटी’, ‘कन्वर्जेंस’, ‘मार्केट’, ‘कम्युनिकेशन’ एवं ‘लैंग्वेज हेजमनी’ की बदलती स्थितियाँ
निर्णायक रही हैं। परिवर्तित पारिस्थितिकीय-तंत्र ने साबित किया है कि आधुनिक समय
कुशल दक्षता एवं प्रवीणता का हैै;
सूचनाओं के अपरिमित प्रयोग, प्रभाव और प्रविधि का है। अस्तु, ब्राह्मणवाद, क्षत्रीयवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सत्तावाद, सामंतवाद आदि धारणाएँ अब
विलुप्त हो रही हैं। जातिसूचक नामों के आतंक, दबदबा तथा रौब-दाब ख़त्म हो रहे हैं और जो लोग इसे अब भी छाती से
चिपकाए बैठे हैं; उनकी
स्थिति अंधविश्वासी से इतर कुछ नहीं है। अतः जिनके पास ‘शक्ति-सामथ्र्य’ अथवा ‘सूचना सत्ता’ है, वास्तविक अर्थों में वही
असली सामंत, पुरोधा, पराक्रमी, विजेता, महापुरुष, देवी, चंडी, दुर्गा, पार्वती आदि हैं। सामाजिक
प्रतिष्ठा, नाम एवं
यश की दृष्टि से वही अब पूज्य,
अराध्य और स्तुत्य है। यह सत्ता का सर्वहाराकरण है जिसमें भारतीय
जनसमाज का हर स्त्री-पुरुष बिना किसी भेदभाव के समान, स्वतन्त्र और सच्चा मनुष्य
कहलाने योग्य है। इस बदलाव के नकारात्मक प्रकोप भी बेशुमार हैं जिसकी चर्चा हम आगे
करेंगे।
उपर्युक्त
समस्त अभिदृष्टियाँ प्रत्यक्ष लोकतंत्र के प्रमाण हैं। यहाँ प्रत्यक्ष लोकतंत्र
कहने का आशय ‘डायरेक्ट
डेमोक्रेसी’ से है। ‘‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र की
अवधारणा में जनता की सीधी और ज्यादा से ज्यादा भागीदारी का पहलू प्रधान है। इसकी
प्रेरणा एथेंस और यूनान की प्राचीन राज्य-प्रणालियों से ली जाती है। अल्पजीवी
पेरिस कम्यून भी एक ऐसा ही उदाहरण था। भारतीय सन्दर्भं में पंचायत आधारित
ग्राम-स्वराज के प्राचीन रूपों को भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र के उदाहरण के रूप में पेश
किया जाता है।’’ अतएव, संचार आधारित भाषा ने अपना
शब्दार्थ बदल डाला है; सामाजिक
विधि-विधान के रहवास और ठिकानों में जरूरी फेरफार संभव किया है। वस्तुतः
अभिव्यक्ति आधारित अभिव्यंजना का पुरातन समीकरण बदल चुका है। अब शब्द सबके हैं
इसलिए अर्थ पर सबका समान अधिकार कायम है। इस प्रकार की प्रतिरोध के स्वर इस 21वीं सदी में बुलंद हो चले
हैं, तो इसमें
नवीन संचार साधन एवं माध्यम आधारित भाषा का योगदान प्रमुख है। परिणामस्वरूप हाशिए
पर ढकेली गई प्रतिभाएँ अब केन्द्र की चूलें कस रही हैं, लोकतंत्र की बाँह पकड़
उन्हें जाग्रत कर रही हैं। देश,
काल एवं परिवेश से जुड़ी-बँधी आधुनिकता जनमत को सींच रही है; उनके पल्लवन हेतु सामासिक
संस्कृति की अधुनातन चेतना को सामान्य मन-मस्तिष्क में रोप रही है। आधुनिक
ज्ञान-मीमांसा आधारित संकल्पनाएँ ज्ञानोदय का सर्वसमावेशी तथा सार्वभौमिक मंच
तैयार करने में जुटी हैं। लोकवृत (पब्लिक स्फियर) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
समाजविज्ञानियों के अनुसार, ‘‘समाजशास्त्र
में नागरिक समाज के एक ऐसे दायरे की चर्चा भी है जिसमें संस्कृति और समुदाय की
विभिन्न अभिव्यक्तियाँ अन्योन्यक्रिया करती हैं। साथ ही, सार्वजनिक दायरे की
गतिविधियाँ किसी मुद्दे पर आम राय बनाने और उसके जरिए राज्य-तंत्र को प्रभावित
करने की भूमिका निभाती हैं। सार्वजनिक दायरा सबके लिए खुला रहता है जिसमें अपने
विमर्श के जरिए कोई भी हस्तक्षेप कर सकता है। फ्रैंकफुर्त स्कूल के विख्यात विचारक
युरगन हैबरमास ने इस धारणा का प्रतिपादन किया था’’ -जिसका भारत की हिन्दीपट्टी
तक दृढ़ विस्तार हुआ है। इस बाबत फ्रांचिस्का आॅरसेनी लिखित पुस्तक ‘हिन्दी का लोकवृत्त’ द्रष्टव्य है।
बदलाव के
इन मूलभूत कारकों और सूचकांकों को पढ़ा जाना आवयक है; इनकी यथोचित एवं गंभीर पड़ताल जरूरी है। यह इसलिए
भी जरूरी है कि हमारी समझ और सूचना आधारित बोध पश्चिम की ओर मुख कर चकित एवं
किंकर्तव्यविमूढ़ भाव से खड़ी दिखाई देती है जबकि भारतीय जनसमाज में लोकवृत्त जैसी
खदबदाहट और परिपाटी काफी पहले ही शुरू हो गई थी। साहित्य का भक्तिकाल आधुनिकता की
पूर्वपीठिका इन्हीं अर्थों में है। प्रचलित पांडित्य को चुनौती देने का काम
सर्वप्रथम तुलसी-साहित्य ने किया। उसने संस्कृत की ‘दैवीय सत्ता’ को नकारा और देशज भाषा-बोली में साहित्य-रचना कर लोकप्रियता के नए
संस्करण आरंभ किए। इसी तरह कबीर-युग ने लोकमानस को न सिर्फ गहरे प्रभावित किया, चिन्तन-दृष्टि को आस्था के
बरअक्स ज्ञान, विवेक और
तर्क से चुनौती देने की हरसंभव चेष्टा की। चर्चित लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल की ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में दृश्य देशज आधुनिकता
इसीलिए अत्यधिक पठनीय, विचारणीय
एवं प्रासंगिक है। दरअसल, भक्ति-युग
ने आरंभ से ही भारतीयता को नए अर्थ-सन्दर्भ, रूप-आकार, स्थापत्य-संस्कृति, कला-साहित्य आदि दृष्टियों
से संवाद-विमर्श हेतु आमंत्रित किया है। उसने संचार की नई वैचारिकी खोजे जिसमें
रसास्वदन का एकरेखीय प्रारूप नहीं दिखाई देता है। उसमें जो गौरतलब पहलू है वह
है-मानवीय सत्ता एवं भूगोल की वास्तविकता में खोज। इसीलिए कबीर के यहाँ
उपदेशक-शैली नहीं है, अपितु
उनके कहन में जनचेतना का हुंकार है। समसामयिक गतिरोध के प्रति सीधा और आक्रामक
प्रतिरोध है। वहाँ कहा गया सबकुछ प्रत्यक्ष, प्रामाणिक और सत्तावान है; आँखन की देखी है।
नवजागरण
का स्थूल-सूक्ष्म सन्दर्भ लें तो ‘‘अठारहवीं सदी के दौरान यूरोप (मुख्यतः फ्रांस) में चले वैचारिक
आन्दोलन को ज्ञानोदय (एनलाइटमेंट) के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन ने जिन
प्रवृत्तियों को जन्म दिया उन्हें हम आधुनिकता या आधुनिकतावाद के नाम से जानते
हैं। समता और न्याय की धारणाओं के प्रचलन का श्रेय भी इसी आन्दोलन को दिया जाता
है। मोटे तौर पर इसे अंधविश्वास पर विज्ञान की और आस्था पर विवेक की विजय के नाम
से जाना जाता है। ज्ञानोदय के विचारक मानते थे कि तर्कबुद्धि के जरिए सामाजिक, बौद्धिक और वैज्ञानिक
समस्याओं का हल किया जा सकता है। वे परम्परा और संस्थागत धर्म के ‘प्रतिगामी’ प्रभाव की कठोर आलोचना करते
थे।...उन्नीसवीं सदी के राजनीतिक-सामाजिक प्रयोगों ने ज्ञानोदय के वैचारिक वर्चस्व
को मजबूत किया और धीरे-धीरे ज्ञान का एक नया सिद्धान्त प्रकाश में आया। इतिहास का
महत्त्व, प्रगति
और विकास की अपरिहार्यता, सेकुलरवाद
और राष्ट्रवाद का विचार भी इसी ज्ञानमीमांसा की देन है। आधुनिक राजनीति की समस्त
वैचारिक और व्यावहारिक गोलबंदी इन्हीं धारणाओं के आस-पास हुई है। विचार के क्षेत्र
में फ्रेंकफुर्त स्कूल के चिंतकों ने ज्ञानोदय के अंतर्निहित द्वंद्व को सामने ला
कर आधुनिकता की आलोचना के द्वार खोले। भारत में इससे पहले ही गाँधी ने हिंद स्वराज
लिख कर एशिया की तरफ से आधुनिकता की आलोचना की शुरुआत कर दी थी। पिछले तीन दशकों
से ‘छोटी
पहचानों की बगावत’, ‘समुदाय
की वापसी’ और ‘बहुसंस्कृतिवाद’ की परिघटनाओं ने ज्ञानोदय
के वर्चस्व को कड़ी चुनौती दी है। जैसे-स्त्रीयता से सम्बन्धित विमर्श, अश्वेत, दलित, पर्यावरणवादी और अन्य
विद्रोही विमर्श।’’
ध्यातव्य
है कि इन सबके केन्द्र में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष ढंग से संचार और भाषा के
अंतःसम्बन्ध शामिल हैं जिन्होंने पिछले समय-काल में जरूरी विमर्श खड़े किए है, जनमूल्य आधारित जनान्दोलन
को जन्म दिया है; लोक-संवृत्ति
के दायरे में एक समांतर किन्तु अधिक प्रभावशाली वैचारिक-संस्कृति को खड़ा किया है।
परिणामस्वरूप विवेकी जन जाति से ब्राह्मण होने मात्र के कारण किसी का पाँव पूजने
जैसे पाखंड को खारिज़ कर रहे हैं। ज़मीन-जायदाद अथवा इफ़रात दौलत होने मात्र की वजह
से किसी को अपना नेता मान लेने को अब अधिसंख्य भारतीय तैयार नहीं हैं। इसी तरह
विदेशी सरज़मी पर शिक्षा ग्रहण कर स्वदेश लौटे राजनीतिक बेटे-बेटियों को वह आँख
मँूदकर चुनाव जिताने के पक्षधर नहीं हैं। लोकतंत्र आधारित संसदीय राजनीति में अब
तक निर्बाध जारी रहे कुप्रथाओं,
कुरीतियों, कुप्रचारों, कुविचारों, कुतर्कों आदि को विशेषकर ‘युवा भारत’ (यंग इंडिया) ने नकार दिया
है। देश की युवा-आबादी अपने हक़-हकूक पर दूसरे की दखल और पाबंदी को परे धकेल स्वयं
इस दिशा में आगे बढ़ रही है। लिहाजतन, कुल, घराना, वंश, खानदान आदि चोचलों और
रिवाजों को इस उत्तर शती में भारी चुनौती मिल रही है। समानता, स्वतन्त्रता और न्याय की
पाठ पढ़ी यह नई पीढ़ी है जो गरीबी,
लाचारी, बेबसी, अभाव आदि में घुट-घुटकर
जीने और कुछ न कहने की पुरानवादियों के संस्कार को तोड़ रही है। नई पीढ़ी अधीर और
जल्दबाज नहीं है। वह अमीरी में पले-बढ़े लाडलों की तरह अति-महत्त्वाकांक्षी भी नहीं
है। वह सच के लिए सचमुच लड़ने-भिड़ने का मादा रखने वाली पीढ़ी है। वह योग्य और काबिल
है, इसलिए वह
हाशिए पर रहने को तैयार नहीं है। वस्तुतः यह युवा पीढ़ी उत्तर आधुनिक तरीके से अपनी
मानसिकता, जागरूकता, हस्तक्षेप, विरोध, एकजुटता आदि को प्रदर्शित
करना चाहती है। वह यह बात भली-भाँति जान चुकी है कि राष्ट्र के समक्ष असली समस्या
राजनीतिक दलों में छाए ‘वीआईपीवाद’ है जिसके कारण चहुँओर
भ्रष्टाचार पसरा हुआ है। व्यक्ति-विशेष के पहल, प्रभाव और परिचय के कारण राजनीति पाखण्ड एवं प्रपंच का अखाड़ा बन गया
है।
स्पष्टतया
संचार और भाषा से जुड़ी नव-आर्थिक अंतःसम्बन्ध इन सबके मूल में है जिसने सत्ता का
संस्कृतिकरण कर दिया है जो अब तक सामंती-शक्तिशाली जातियों द्वारा अपह्नत मानी गई
थी। सर्वविदित है कि अभी तक स्वयं को ब्रह्मतुल्य मानने वाले आत्ममुग्ध लोगों एवं
उनकी जातियों (सबलोग नहीं तब भी बहुत सब) ने देश का सर्वाधिक बेड़ागरक किया है। वे
सामान्यीकरण और सर्वहाराकरण का उवाच करती रही हैं, लेकिन खुद पाँव से सर तक पाप, पापाचार, भ्रष्टाचार, अनैतिक कार्य, मूल्यहीन बर्ताव आदि में
आकंठ डूबी हैं; क्योंकि
लूट के संसाधनों पर उनका ही कब्जा है, भाई-भतीजावाद इनके लिए खुल्लमखुला छूट है। भारत आजादी के इतने वर्षों
के बाद भी पिछड़ा हुआ है क्योंकि पिछड़ी मानसिकता और ओछी किस्म की राजनीति करने वाले
लोग राजनीतिक पदसोपान में सबसे ऊपर है। देश में अकादमिक गतिविधियाँ इसलिए स्तरहीन
हैं क्योंकि जो प्राध्यापक-जन हैं वे अपनी मूल-प्रकृति में जातिवादी, वंशवादी और वर्चस्ववादी
मानसिकता से नधाए हुए हैं। वे अपनी जवाबदेही से तौबा करते हैं जबकि अपने मातहत पर
इसका सारा बोझ लाद-थोप देते हैं। यदि इस हस्तांतरण में अगला व्यक्ति
जाति-धर्म-गोत्र से समानधर्मा हुआ, तो इसका जिम्मा किसी और की ओर बढ़ा दिया जाता है। इस कारण आज
विश्वविद्यालयों में जिनका सर्वाधिक जोर-बल-दाब चलता है, वह दलित, पिछड़ा, स्त्री अथवा सामान्य आर्थिक
हैसियत का हरगिज़ नहीं हैं। लेकिन अब समय पलटा है। अब उनकी अयोग्यता को वे काबिल
लोग सीधी चुनौती देने लगे हैं,
जो केन्द्र से बाहर थे, हाशिए पर थे या कि बाहैसियत अनुपस्थित थे। परिवर्तन के इस ज्वार से
ऐसी हड़कम्प मची है कि आरक्षण को भला-बुरा कहने वालों की फौज बढ़ती जा रही है।
आरक्षण जिसको लेकर इतना वितंडावाद खड़ा किया जाता है, को प्रश्नांकित करने का षड़यंत्र पूरे देशभर में
जारी है। आजकल सरकारी नौकरियों विशेषकर ‘क्लास वन’ की
नौकरियों में नियुक्तियाँ धांधलीपूर्वक की जाता है। इस क्षेत्र में महारती और घोर
जातिवादी लोग आरक्षण पर अपना बल कूटने के लिए अधिकतम योग्य को बाहर का रास्ता
दिखाते हैं, वहीं
न्यूनतम योग्य को नौकरी दे उसे अपना आजीवन कृपापात्र बने रहने पर मजबूर करते हैं।
निःसंदेह यह सांकेतिक भाषा में किया जाने वाला वह खिलवाड़ है जिसके प्रतीकों, संकेतार्थों, अभिव्यंजनाओं को पढ़ने-जानने
के लिए भाषा और संचार के नए विधान खोजने होंगे; मनोभाषिकी में घुसे बहु-तमाशी अभिनयों (आंगिक, वाचिक, आहार्य, सात्त्विक) को जाँचना-परखना
होगा। यह महती जिम्मेदारी हमारी है, ।
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