Saturday, February 5, 2011

सर पर 'सवार' पेट के सपने

एक दिन खूब मजा आया था, तुम्हारे साथ जंगल जाकर।

लेकिन लकड़िया तूने ही काटी थी सारी।

मैंने तो बस अपने हिस्से का बैर चुना था।

रास्ते में एकबार भी नहीं
करने दिया था अदला-बदली।

अपने माथे की बोझ को, लकड़ियों के गट्ठर को।

लेकिन सबसे पहले पकी रोटियाँ मैंने ही खायी थी।

तुम्हारे हिस्से का हँसी, तुम्हारे हिस्से की धूप।

आजतक सबकुछ मैंने ही सेवन किया है।

कभी तुम दूध की छाली नहीं खायी, दूध नहीं पी।

ये अलग बात की मैं घी नहीं खाता।

पर मेरे हिस्से की घी भी तुम्हें कभी नहीं मिली।

फिर भी तुम्हें कभी रोते नहीं देखा, बिलखते या गिड़गिड़ाते भी कभी नहीं।

देखा है तो बस, तुम्हारे सर पर सवार पेट के सपने।

हमारे भूख के सपने।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...