पंकज तिवारी
उहौ काऽ दिन रहल गुरु!
लकड़ी के पटरी
दुद्धी से लिखाई
ऊ टूटहा ब्लेड
नरकट कऽ कलम
बसवारी के करकट में
बैटरी कऽ खोजाई
सायफन पर बइठके
दुद्धी घोराई
चवन्नी कऽ चूस, अठन्नी कऽ पाचक
लइकन में मेठ बनके
बगइचा में घुमाई
टिकेरा कऽ चोरी
लइकन से लड़ाई
ऊ चोरवा कऽ आती-पाती
हुर्री कऽ खेलाई
पंडी जी कऽ सिटकुन
छुट्टी कऽ जोहाई
सांझी कऽ नंगई
माई से पिटाई
दादी कऽ दुलार
रामनाथ कऽ ठोर
दद्दा के कान्हे पर
बजारी में टहराई
कहाँ गईल ऊ दिन
हो ऽ ता ऽ जोहाई
बस करा गुरु
आँख भर आईल।
(प्रसन्नचित्त शैली के बेहद संवेदनशील कवि हैं पंकज तिवारी। उनके अंदर की बोल कभी-कभार ही फूटती है। कहनशैली में आत्मीय आकुलता है, संवेदनशीलता की मर्मस्पर्शी प्रवाह है। विशेष आग्रह पर उन्होंने अपनी दो कविताएँ ‘इस बार’ को उपलब्ध करायी हैं। आज प्रस्तुत है पहली कविता।)
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