Monday, June 10, 2013

7.55 AM/10-06-2013




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....और हुआ वही जिसे देखे जाने की उम्मीद हमारी बेचैन आँखें कर रहीं थीं।

वैसे तो यह मतस्य-न्याय नहीं है। यह उसका रिवर्स है। बीमार आडवाणी को ‘बैकफुट’ पर डालते हुए मोदी की प्रचार-कमल सिंहासन विराज उठी है। भाजपा मोदीमय है, तो हर्ष-हुलस की मदिरापान-संस्कृति भाजपामय दिखाई दे रही है। ज्योतिषदार राजनाथ सिंह अपने इस फैसले को न्याय(कृप्या अन्याय न प-सजय़ें) कह रहे हैं। लेकिन आडवाणी की इच्छा-महत्वाकांक्षा के मद्देनज़र देखें, तो यह उनको शीर्ष-भाजापाईयों की ‘एक धक्का और....’ है। हाशिए पर आ खड़े हुए आडवाणी सोच रहे होंगे-‘ये क्या हो गया रामा रे........!’

दरअसल, नरेन्द्र मोदी भाजपा के लोकप्रिय ‘मनी-पर्सन्स’ हैं। अपना नामलेवा वे खुद हैं। वैसे भी बीमार और बुजुर्ग आदमी को राजनीतिक भोज-महाभोज से दूर-दार ही रहना चाहिए। ख़ासकर गोवा जैसे अल्हड़ जगह में पार्टी-मीटिंग हो तो मन-मिज़ाज बिगड़ने के चांसेज अधिक होते हैं। इस मामले में नरेन्द्र मोदी का अय्यारी(भगवा) -हजयक सफेद हैं। वे आधुनिक विकास का पहाड़ा प-सजय़ने वाले व्यक्ति हैं। पूँजीवादी मंशा को मोदी बख़ूबी सम-हजयते हैं। औद्योगिक घराने से उनके गठजोड़ तगड़े हैं। वे टाटा को पश्चिम बंगाल से खदेड़े जाने पर अपने प्रान्त की माटी में किले ठोंकने का न्योता देते हैं। उनकी दृष्टि में वर्तमान समय में विकास से वनवास लेना संभव नहीं है। अपनी ज़मीन पर विकसित राष्ट्रवाद का तम्बू-कैनात खड़ा करने के लिए विदेशी पूँजी से हिल-ंउचयमेल आवश्यक है।

आडवाणी की वर्तमान स्थिति पर पुनर्विचार करें, तो आधुनिक राजनीति में ऐसा ही होता है। शक्ति क्षीण होने पर राजनीतिक-भीष्म व्यक्तिगत-महत्वाकांक्षा की बा-सजय़ में अक्सर बहा-बिला जाते हैं और कोई चूँ(बड़ी बात है भाई!) तक नहीं करता। आजकल लोकप्रियता पर दुनिया सर टेकती हैं। झुककर सलाम करती है। रीढ़विहीन नेतृत्व हो तो वह लोट भी जाती है प्रायः। आज की राजनीति में वोट जितना ही नेता होना है। राजनीति के कुरुक्षेत्र में जीतकर न हारना ही असली काबीलियत है। गुजरात में मोदी जीतें, तो देश में भाजपा ने जन-जागरण माफ़िक उत्सव मनाया। बिहार में नीतिश जीतें, तो भाजपा ने सशासन का तानपुरा बजाया। इस बार केन्द्र में भाजापाई महामंदी से उबरने के लिए ‘ससुराल गेंदा फूल’ की तर्ज़ पर ‘भाजपा कमल फूल’ का तर्जुमा प-सजय़ रहे हैं राजनाथ सिंह और उनके बारे में कसीदे पढ़-पढ़कर सुना रहे हैं देश की जनता-जनार्दन को।

फिलहाल देखते जाइए.....आगे-आगे होता है क्या........? चुनावी तमाशा तो अभी शुरू ही हुए हैं....भाई जी!

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...