Thursday, June 27, 2013

रजीबा का विकीलिक्स....खुलासा!


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यह ठीक है कि देश की राजनीति रजीबा की राय से नहीं चलती है। पर रजीबा रायबहादुर है। दुनिया भर की राजनीति पर अपनी राय देता है। औकात ‘जीरो’। लेकिन, उसकी अक़्ल के आगे रायसीना हिल्स के लोग पानी भरते हैं...ऐसा उसका मानना है, दावा नहीं। दावा मोदी कर सकते हैं। मोदी के मद में पगलाए हुए लोग कर सकते हैं। राहुल कर सकते हैं जिनका देह राजनीति के नाम पर रोता है; लेकिन वे राजनीति से चिपके रहने को अभिशप्त हैं। मोदी धरम करते हैं। राहुल करम करते हैं। इसी करम-धरम में जनता का बेड़ागरक होता है...हो रहा है। बेड़ागरक का विज्ञापन टीवी पर मत देखिए। अपने आस-पास देखिए। हर महीने ख़त्म होने वाले गैस में देखिए। सब्जी बाज़ार में भाव सुन अपने चेहरे पर आते भाव में देखिए। अपने दुपहिया-चरपहिया के टैंक का ताला खोल तेल में देखिए। उस दिल्ली-शिक्षा में देखिए जो बच्चों का ‘कट आॅफ’ शत-प्रतिशत जारी करती है। उसके नीचे वालों को धकेल-बाहर करती है...जबकि शत-प्रतिशत उसे भी आता कुछ नहीं है।

जनता क्या कभी किसी को धकेल-बाहर कर सकती है...शत-प्रतिशत की तर्ज पर? क्या अपने ज़िन्दगी को चूसते उन जोंकों को खुद से अलगा सकती है जिन्हें न चिपकाये रखें, तो वे अपनी मौत आप ही मर जाए। अगर नहीं कर सकते, तो रजीबा क्यों करे? रजीबा पतरसुख है। जीभ इतनी पतली कि ज़मीन चाटने पर धुल तक ढंग से नहीं चपक पाते हैं उसकी जीभ पर। तलवा चाटने पर क्या गत होगी...अंदाजिए.....अंदाजिए गुरू!

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...