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इस बार रविवारी(26 मई, 2013) अंक में कृष्णा शर्मा की कविता प्रकाशित हुई
है। बेहद दुरुस्त भाषा में खुद की ख़बर लेती हुई यह एक महत्त्वपूर्ण कविता
है। किसी भी सूरत में खुद से लड़ना आसान नहीं होता है। स्वयं के ख़िलाफ
एफआईआर लिखाने के लिए जीवट जिजीविषा चाहिए जो कविता शर्मा की इस कविता
में पूरे ठाठ संग मौजूद दिखाई देती है। अपने आत्मबल को झकझोरती हुई मानों
वह स्वयं को आईना दिखाती हैं-‘खुद ही तो मैं/बंधती गई/सिमटती गई/सिकुड़ती
गई/सीमित, संकुचित/घिरती गई घरों में/भार-बोझ/परेशानी-जिम्मेदारी
शब्द थे/मुझे सम्बोधन के लिए।’ इस कविता में कवियित्री का रूख साफ है।
इसीलिए वह अपनी ओर से पहलकदमी करती दिखाई दे रही है। यह पहलकदमी स्त्री
के स्वयं से बहसतलब होने की चेतना और प्रवृत्ति को जगज़ाहिर करता है। गोकि
यह मानविकी और सामाजिकी के गट्ठर में पलते बौद्धिक-मुँहे साँपों के ऊपर
जबर्दस्त प्रहार भी है और उनके प्रपंचों का खुलासा भी। कवियित्री
मनबहलावे के प्रलापों को तुच्छ लोगों के आत्मप्रियता का हथकंडा मानती
हैं।
वाकई आज का पढ़ा-लिखा तबका अपनी सुविधानुसार संवदेना का खोल बुनने में
उस्ताद है। वह भाषण, वक्तव्य, आश्वासनों की पहेली रचने में सिद्धहस्त है।
उसकी सलाहियत में स्त्रियों के लिए शब्द सर्वाधिक हैं, लेकिन उनके लिए
लड़ने-भिड़ने का वास्तविक जज़्बा प्रायः गोल/नदारद है। लोग संग-साथ बहुत
हैं, लेकिन उनकी ढपली का राग रोगग्रस्त/संक्रमित है। अतः कवियित्री इन
गड़बड़झालों को देखते-सुनते और परखते हुए जिस निष्कर्ष पर पहुँचती है वह
उनकी असली प्रतिरोधी/प्रतिनिधि संचेतना है-‘‘शिकायत के लिए भी/चाहिए होता
है/कुछ भरोसा/नहीं, अब तो वह भी नहीं रहा/भाषण, वक्तव्य, आश्वासन/ये सब
हथकंडे हैं तुम्हारे/अब खुद को ही/बहलाते रहो तुम अपने इस प्रलाप से/मुझे
लड़ना है अपने ही आप से/ये मेरे सवाल हैं/ये मुझे ही पूछने हैं, पहले अपने
आप से।’
सबसे बड़ी बात यह लगती है कि इस कविता में दुःख, पीड़ा, संत्रास, निराशा,
तनाव, अवसाद का लेशमात्र भी पैठ या रोना-धोना नहीं है जिसे जोड़-जाड़कर
देखने का प्रयास प्रायः ख़ासोआम सभी करते हैं। इस कविता में अपने
आस-विश्वास का जयबोल है। यह अपने ही स्पर्श से खुद को ऊष्मित/तापित करने
का बेजोड़ और साहसिक प्रयत्न है जिसमें स्त्रियों का सम्पूर्ण मानचित्र
नया रूप, रंग, आकार, आकृति और भाव-मुद्रा लेता हुआ दिखाई दे रहा है।
दृढ़संकल्प के उजास में यह उद्घोषणा महज़ भाषा में गढ़ी गई भावुक अतिरंजना न
होकर हर-एक स्त्री के भीतरी मनोरचना और उसके अंतस-चेतना का स्वाभाविक
प्रस्फुटन है; उसके अन्तर्लोक का साक्षात्कार है।
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(जनसत्ता ‘चैपाल’ को प्रेषित)
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