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टीवी लबालब भरे टब की तरह है। आजकल यह भरावट पानी की नहीं राजनीतिक बातों
की है। पेट से बात निकलने में ईंधन की खपत नहीं होती है। इसलिए आप बातों की
टब में एकल स्नान कीजिए या शाही-स्नान कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। दरअसल,
चुनाव-पूर्व बातों का क्रेज विज्ञापन से अधिक टीआरपी देने वाला होता है। और
बात का विषय अगर केन्द्र में झण्डे गाड़ने का हो, तो टेलीविज़न की हैसियत उस
नई-नवेली बहुरानी की तरह हो जाती है जो चैबीसों घण्टे टीप-टाॅप में ही
दिखती है।
इसीलिए आजकल
टीवी पर राजनीतिक धींगामुश्ती और मुँहचपौवल का खेल चोखा है। एक बकबका रहा
है धुँआधार, तो दूसरा उसकी बोलती बन्द करने की जुगत में जुटा है...।
आँख-मुँह के सामने कैमरा हो तो जवाबी बात जबर्दस्त तरीके से मुँह से बाहर
आती है....ध्रुवीकरण, तुष्टिकरण, अल्पसंख्यकवाद, बहुजनवाद, समाजवाद,
सेक्यूलर, कम्यूनल वगैरह-वगैरह। ज्ञान का पाखण्ड हमेशा पारिभाषिक शब्दावली
में प्रचारित/प्रसारित/आरोपित/प्रक्षेपित होता है। शब्दों का उलटफेर है। अर्थ सभी दलों में एकसम है।
टीवी पर बकुआने में राम/रहीम सब के सब माहिर हैं। इनमें से कोई किसी
पार्टी में प्रवक्ता पद पर तैनात है, तो कई ऐसे भी अभय-निरंजन हैं जो
राजनीतिक नहीं; लेकिन राजनीतिक-बुखारों के डाॅक्टर घोषित हैं। ऐसे जन
प्रायः बुद्धिजीवी-बक्सा लिए अपनी बातों से ‘फस्र्ट एड’ करते मिल जाते हैं।
चेहरे पर आब और आभा लिए ये बुद्धि-विशारद जब बोलेंगे, तो इनकी देहभाषा से
भी बुद्धिरस ही टपकता दिखाई देगा। ऐसे लोगों को देखकर ही लग जाएगा कि ये
अभी-अभी दो-चार अण्डे सीधे गटक कर आये हैं; या फिर शाकाहारी हुए तो
रसगुल्ला या रसमलाई चाभ कर स्टुडियों में दाखिल हुए होंगे। ऐसे लोग जब
बोलना शुरू करते हैं तो सबसे पहले उनकी मेहरारू टीवी बन्द करती हैं। अमुक
महाशय अगर खुद अपना कार्यक्रम दुहराते मिल गए तो उन्हें बेलना लेकर
धिराया/धमकाया जाता है। ऐसे लोगों की सारी बुद्धिगिरी मेहरारू के आगे
गिली-गिली-छू करने लगती है।
टीवी उत्पाद बेचने का साधन है।
लोकसभा चुनाव स्वयं एक बड़ा उत्पाद है। इसे बेचने के लिए बड़े बज़ट का
विज्ञापन तैयार होता है। इसको ‘चियर्स गल्र्स’ नहीं बेच सकती हैं। इसके
सेल्समैन बुद्धिजीवी होते हैं जो प्रायः मत नेता(ओपेनियन लीडर) की भूमिका
निभाते हैं.....!
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