Monday, June 24, 2013

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प्रिय देव-दीप,

हम जहाँ-जहाँ आबाद(?) हुए....तहाँ-तहाँ बर्बादी हुई। विकास की बकावस और अंधाधुंध दौड़। चुहदौड़। बकरादौड़। घुड़दौड़। हाथीदौड़। सबकुछ ताबड़तोड़। कई बार यह सब हमने आस्था और विश्वास के मुलम्मे में किया। प्रकृति की घेरेबंदी की। यह बिना सोचे-समझे कि इस नाकेबंदी की वजह से नदी, पहाड़, जंगल इत्यादि का क्या होगा? उस शक्ति-सत्ता का क्या होगा जिसके रहमोकरम पर हम जी रहे हैं, जुगाली कर रहे हैं, बनावटी खोल/खोली ओढ़-बिछा रहे हैं; और उसमें विराज भी रहे हैं?

देव-दीप, प्रकृति गुपचुप कुछ नहीं करती है। वह दंड देती है, तो खुल्लमखुल्ला। एकसम। एकरूप। हम अपने निरीह, निर्दोष होने का थाली-तसला पिटते रहे...कोई सुनवाई नहीं। हमारा भोलापन अगर प्रकृति का भला नहीं कर सकती है, तो वह आपके भले के लिए सोचे क्योंकर? आज जिसे हम हिमालय की सुनामी कह रहे हैं...वह दरअसल, हमारे ही किए का ‘ब्लैकहोल’ है। यह यमराज का महाभोज नहीं है। यह कुपित देवताओं का दैवीय-न्याय(पोएटिक जस्टीस) नहीं है। यह हमारे अजर-अमर होने की लालसा(?) पर वज्रपात भी हरगिज़ नहीं है।

देव-दीप, यह तो हमारे उन करतूतों का हर्जाना है जिस पर हमारे सरकार की चुप्पी लाजवाब होती है। इरादतन प्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाले पूँजीदारों का कब्जा जबर्दस्त होता है। यह जानते हुए कि जान रुपल्ली में नहीं हासिल की जा सकती है, लेकिन हम आज रुपयों के लिए जान तक को दाँव पर लगाने का खेल जरूर खेल रहे हैं।

देव-दीप, जहाँ प्रकृति निर्वासित है...देवताओं का पलायन वहाँ से सर्वप्रथम होता है। उन देवताओं का पलायन जो अगोचर/अलौकिक सत्ता के रूप में विद्यमान हैं। हमलोग चमत्कार करने वाले को देवी-देवता कहते हैं। उन्हें अराध्य मानकर पूजते हैं। अपने पप्पू और पम्पू तक को पास कराने के लिए पैरवी/सिफारिश करते हैं। हम उन शक्ति-स्थलों(जिनके बारे में हमारी यह धारणा बन चुकी है कि वे बेऔलाद को औलाद देते हैं; नामुरादों की मुराद पूरी करते हैं) के आगे आदमी बने रहने की सदाशयता तक नहीं बरत पाते। हम उन्हें कंक्रीट से घेरते हैं। प्राकृतिक मनोमरता का सब्जबाग दिखाकर लोगबाग और विदेशी सैलानियों को ठगते/चूसते हैं। बेवक्त या असमय ईश्वर का आसरा वही लोग जोहते हैं जो आत्महीन/व्यक्तित्वहीन हैं।

देव-दीप, ज़िन्दा रहने को तो पशु-पक्षी/कीट-पतंग भी ज़िन्दा रहते हैं....क्या उन्हें कभी हमने किसी देवालय/शिवालय के आगे सर नवाते देखा है। कभी ज़िन्दा नंदी को मूर्तिस्थ नंदी के कान में अपना जुगाड़ भिड़ाने का सिफारिश करते हुए देखा है। नहीं देखा, तो जबरिया मत देखिए। ऐसा प्राकृतिक रूप से नहीं होता है। प्रकृति का कोई भी जीव परवश नहीं है। हाँ, उनमें आपसी सह-सम्बन्ध, समन्वय, समायोजन, साहचर्य अवश्य है। फिर हम विवेकी-जन लोभ/स्वार्थ के वशीभूत क्यों हैं? हमें इस बारे में अवश्य सोचना चाहिए?

देव-दीप, सैरगाह/देवयात्रा आदि सब मन के भुलावे हैं। जो खुद से हारता है...वह पत्थर को विजेता साबित करता है। जिसमें अपने प्रति लाग-निष्ठा नहीं होती....वह अदृश्यमान के सामने साक्षात दंडवत करता है। हमें इनसब षड़यंत्रों/कर्मकाण्डों के आगे शीश नवाने या खुद के गढ़े आकार-आकृतियों के समक्ष माथा टेकने, नारियल फोड़ने, मंत्र-जाप या पूजा-पाठ करने जैसी कवायदों से परहेज करना सीखना होगा। आज हमें प्रकृति की सुध लेने की जरूरत है जो हमारे खुली आँखों के आगे ढह-ढिमला रही है....बर्बाद और बवंडर-सुनामी में तब्दील हो रही है।

देव-दीप, उत्तराखंड की आपदा-विपदा पर मैं अपनी ओर से सिर्फ इतना कर सकता हँू कि मैं खुद को प्रकृति के कद्रदानी के लिए न्योछावर कर दूँ...तुमदोनों को प्रकृति के महत्तव के बारे में अधिक से अधिक जना सकूं। आने वाले भविष्य में तुम्हारे दिन और रात में पर्याप्त रोशनी का हस्तक्षेप/दखल हो....इसके लिए फिलहाल मेरी लड़ाई अपने खुद के मन से है, अपनेआप से है।

....और मैं मृत्यु का स्वागत करते हुए प्रकृति की महानता का जयगान गा रहा हूँ...प्रकृति हमारी माता है....भाग्यविधाता है...कण-कण व्याप्त है...जिसकी अकथ कहानी असमाप्त है......!

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...