Sunday, June 23, 2013

रजीबा का ‘रांझणा’


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अटूट प्रेम पनपता है...जब कोई टूट कर चाहता है।

जात-मज़हब, भाषा-भूगोल, अमीरी-गरीबी इत्यादि से परे एक लौण्डे के भीतर युवा उमरिया में प्यार-व्यार होना स्वाभाविक है.....किसी लौंडिया के लिए ‘रांझणा’ बन जाना जो बिल्कुल ही संभव। खाशकर खाँटी/ठेठ बनारसीपन का भोकाल किसी लौंडे के तन-मन में रचा-बसा हो तो....फिर कहना ही क्या भैये....?

....तो फिर हो जाए ‘रांझणा’....!

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...