Saturday, May 18, 2013

काशी: बाबा मन की आँखे खोल


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यह रेट/रट काशी के कबीर की थी। वे ताउम्र इसी साध/धुन में रमे रहे। अपने बाबा(निराकार ब्रंह्म) से मन की आँखे खोलने के लिए आरजू-मिन्नत करते रहे।
कबीर आज की जातीय-भाषा में सभी सम्प्रदायों के ‘बाप’ थे। वे आज की हमारी पीढ़ी की तरह ‘देखा, भोगा; और छोड़ दिया’ पद्धति पर विश्वास नहीं करते थे। उनकी रागावली का तान दूसरा था-‘दास कबीर जतन करि ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’। आज हम ऐसा नहीं कर पाते। हमारी नरेटी में वो दम-दिलास नहीं है; और जो है अपनी ही बखान में ख़त्म हो जाता है। हम अव्वल दरजे के काहिली के शिकार हैं। रोगग्रस्त। इडिक्ट। माइनियास्टिक लक्षण/अभिलक्षण से संक्रमित।

कबीर को पता था। वे जानते थे कि काशी त्राण-परित्राण की नगरी हैं। स्वयं को विलगित नहीं संलगित करने की भूमि है। यहाँ धर्म जीवन को धारण करने की चेतना से सम्पन्न है।
काशी में रोशनाई की आवाज़ बजती है। घंट-घड़ियाल नृत्य करते हैं। काशी की संध्या इस क्षण बावरी हो उठती है। आपको हर रोज लोग गंगा-आरती के बहाने सदानीरा नदी गंगा की बलैया लेते मिल जाएंगे। कला के रंगरेजों(दृश्य-कला के विद्यार्थियों) को ‘सुबह-ए-बनारस’ का सुलेख लिखते देख आप एकबारगी हैरत में पड़ जाएँगे। सोचंेगे, इन बच्चों की कूची में अपने लिए भी होता कोई ब्लैंक-स्पेस, रंग या कोई नाम-मात्र तिल का निशान ही सही। इस नगरी की प्राचीनता भव्य है। मैं कहता हूँ कि काशी का वर्तमान जितना जीवन्त है, उससे अधिक दुर्लभ।  

इसीलिए यह आज भी अपने महात्मय में पावन-पवित्र, प्रासंगिक, उल्लेखनीय और दर्शनीय है। भारतेन्दु ने ‘अन्धेर नगरी चैपट राजा’ नाटिका में अपने समय के लोक को काशी में ही चित्रित और मंचित क्यों किया? महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’, तो प्रेमचन्द ने अगली कड़ी में सरस्वती के वैचारिक वाहन ‘हंस’ की आधारशीला काशी से क्यों रखी? महामना मदन मोहन मालवीय जी ने अपनी कर्मस्थली के रूप में काशी को ही क्यों चुना? संभवतः इसलिए कि यहाँ तमाम विचारधाराएँ, मतभेद, असहमतियाँ अपनी सभी जिज्ञासाएँ शान्त कर लेती हैं। यह सर्वविदित है कि ज्ञान-प्रवाह, ज्ञानानुशसन और ज्ञान-मीमांसा सम्बन्धी संदेह का निवारण करने के लिए देश भर से लोग यहाँ आते थे।

वर्तमान में मोक्ष-माक्ष सम्बन्धी जाल-जोकड़ तो कर्मकाण्डियों ने जोड़/छेड़ रखा है। काशी के जगत पर इसका निषेध सर्वथा होता रहा है। यहाँ ज्ञान की दुदुंभी बजती रही है। जो ज्ञान-सम्पन्न है; पारंगत है; वही सिद्ध है। वही शंकराचार्य है। घोर शास्त्रार्थ। घनघोर सांस्कृतिक-वैचारिक यात्रा। विश्व-मानव की उद्भावना सम्बन्धी अनगिनत साक्ष्य/समीक्षाएँ इस काशी से सिर्फ जुड़ी नहीं हैं; गूँथी हुई है। जैसे शृंख्लाबद्ध मोती एक महीन धागे से बिने होते हैं; वैसे ही काशीवासियों में प्राच्य विधाएँ; सांस्कृतिक स्थापत्य की अजंता एलोराएँ की भाँति अनुस्यूत हैं; देदिप्यमान हैं। 

 दरअसल, इनका मोल नकदी शून्य है। बैंकिंग-अंतरण एकदम असंभव है। यह वह चारित्रिक सम्पति है जो चेतस-मनुष्य को ‘रजस्वला’ बनाती है। रजस्वला होना यानी स्वयं में इतना आब/आभा भर देना कि आप इस दुनिया में अपने समानधर्मा चरित्र का निर्माण कर सको। उनको अपनी गति/मति/सम्मति के अनुरूप ‘विश्वमानव’ बनने की दिशा में अग्रसर कर सको। निश्चय ही ये बातें कुछ अटपटी लग सकती हैं। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के पल्ले तो हरगिज़ ही नहीं पड़ सकती है। विशेषतया मैकाले का रावणी-दंभ यहाँ फुस्स हो जाता है। उसके मिथ्याभिमान को काशी के कबीर की एक उलटबाँसी चिचियाने पर विवश कर देती है। जैसे रावण हार गया था होनहार अंगद के पाँव के अट्टाहास से।


(रजीबा के संस्मरण ‘हम ना छोड़ब काशी’ से)

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