Sunday, May 5, 2013

चलो थोड़ा फिल्मी हो लें


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सिनेमा-निर्माण की प्रक्रिया बेहद जटिल है। यह एक टीम-वर्क है जिसमें कई लोगों का दिमाग एक ही दिशा में कार्य करता है। सुचारू ढंग से किन्तु नियमित। कई-कई विधाओं और मानव-कौशलों का खूबसूरत सम्मिलन होने के कारण मैं इसे ‘दिमागी-टोली’(ब्रेन सेट्स) कहता हँू। यथा-पटकथा, निर्देशन, अभिनय, दृश्य, गीत-संगीत, मेकअप, सिनेमेटोग्राफी, कोरियोग्राफी, कास्ट्यूम डिजाइनिंग, लाइट, एडिटिंग वगैरह सब के सब किसी निर्माणाधीन फिल्म के ऐसे कल-पूर्जे हैं जिनको परस्पर जोड़कर एकाग्र प्रभाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। रोचक संवाद और सुपरहिट गाने की उपस्थिति मात्र से ही कोई फिल्म महत्त्वपूर्ण बन जाए; ऐसा सोचना एक बेहतरीन गल्प हो सकता है, किन्तु सचाई हरगिज़ नहीं। कथावस्तु के हिसाब से पात्रों के सशक्त अभिव्यक्तिकरण अथवा फिल्मांकन की चुनौती अच्छे से अच्छे निर्देशक को चकराए रखता है। इंसानी मनोभाव, स्वाभाविक मनोवृत्ति, दैहिक चेष्टाओं और अंदरूनी हलचल से उपजे शारीरिक-मानसिक संप्रत्ययों को कैमरे की आँख में कैद करा ले जाने की बहादुरी दिखाना फिल्मकारों के लिए सचमुच लोहे के चना चबाने की माफिक है। ‘‘नरेशन’ के स्तर पर एक व्यक्ति के निजी क्लेश के सार्वभौमीकरण और उसके अन्तर्जगत को पकड़ पाना टेढ़ी खीर है। ऐसे में निर्देशक की खूबी नाटकीय घटनाओं और संगीत की एकात्मकता करने, फिल्टर लाइटों के माध्यम से मद्धम प्रकाश और घटनाओं का एक गुंफन रचने, अन्धेरे में डूबी आकृतियों के पाश्र्व में क्षीण उजास को उभारने, व्यक्त और अव्यक्त के साथ चेहरों के क्लोज अप रचने और कैमरे की विलक्षण गतिशीलता में है।’’(हिन्दी सिनेमा अंक, प्रगतिशील वसुधा-81, पृ0 145)

सिनेमा अपनी तकनीकी-कौशल, दृश्य-विधान, चरित्र-गठन, कथा-वस्तु, बिम्ब-योजना एवं संवाद-कला में अन्य जनमाध्यमों से बिलकुल भिन्न है। हम देख सकते हैं कि फिल्में प्रारंभ से ही अधिक बोलने की बजाय दृश्यों के माध्यम से पूरी रामकहानी बयां करती आई हैं। वस्तुतः ‘‘सिनेमा में सिर्फ शब्दों की शक्ति से काम नहीं चलता, इसके लिए चित्रों की शक्ति भी जरूरी है। शब्दों की सीमा यह है कि वे चित्रों की तरह रेखीय और क्षैतिज गतियों यानी दो आयामों में नहीं चलते और न ही वे इन जैसी प्रत्यक्ष दृश्यात्मक गहराई(डेफ्थ आॅफ फिल्ड) के द्वारा कथ्य और उसकी संवेदना के तीसरे आयाम को आगे बढ़ाते हैं। उनके विपरीत मूवी कैमरा देश और काल के साथ-साथ लम्बाई, चैड़ाई और मोटाई के सारे आयामों को उकेरता है। चित्रों का प्रत्यक्ष तन्त्र या अवधारणात्मक संरचना और गठन तथा संयोजन भी शब्दों से भिन्न होता है।’’(सिनेमा विशेषांक, लमही, जुलाई-सितम्बर, 2010, पृ0 11)

यद्यपि दृश्य कला की अपेक्षा श्रव्य कला की प्रेषणीयता के उपकरण भिन्न होते हैं, तो भी वे अपने सम्मिलित प्रभाव के माध्यम से एक विशिष्ट कला-रूप को अनुसृजित करने की चेष्टा करते हैं। वस्तृतः दृश्य-श्रव्य माध्यम हमारे ज्ञानेन्द्रियों से अनुभूत नब्बे प्रतिशत सूचनाएँ मस्तिष्क तक पहुँचाने में सक्षम होता है। ये बिम्ब, प्रतीक, मिथक या संकेत; चाहे सामाजिक हों या राजनीतिक; उनका उत्स देखते बनता है। इस क्षण उदात्त मानवीय-भाव और संवेदना के कोण परस्पर संपृक्त हो उठते हैं। यथार्थ भीतर नव-यथार्थ रचने में माहिर इस जादूई-कला को भारत में कभी दोयम दरजे का रचनाकर्म नहीं समझा गया। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र दृश्य कला की सम्प्रेषणीयता का शास्त्रीय और व्यावहारिक धरातल पर रस-सृजन सम्बन्धी प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रकाश डालता है। इस सन्दर्भ में पश्चिमी चिन्तक सारा जेटकिन का कथन उल्लेखनीय है-‘‘कला जनता की चीज है। कला ऐसी होनी चाहिए जिसे आम जनता समझे और चाहे। कला को आम जनता की संवेदनाओं, विचारों एवं इच्छाओं से जोड़ना और उद्वेलित करना चाहिए; इसे जनता के अन्दर की कलात्मक सहजवृत्तियों को उद्वेलित तथा विकसित करना चाहिए।’’(हिन्दी सिनेमा अंक, प्रगतिशील वसुधा-81, पृ0 469)

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