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बस्तर में कल जो हुआ, बिल्कुल ग़लत हुआ। लेकिन, इससे पहले जो बीजापुर में हुआ, वह तो और भी अक्षम्य और बर्बर था। लेकिन, उसे न तो पूरा देश जान पाया और न ही सरकार के शीर्ष नेताओं ने इसकी सुध ली। जबकि आज कोहराम, विलाप और झूठी मातमी हो-हो का दौर शुरू हो चुका है। बस्तर की खूनी-साँझ ने पूरे देश की राजनीति में बवण्डर खड़ा कर दिया है। यह घटना क्योंकर हुई....? इन नेताओं को नक्सलियों ने किस कारण से निशाने पर लिया? यह देखा जाना आवश्यक है।
बीते दिनों बीजापुर में नरसंहार हुआ; लेकिन, देश में इस घटना को लेकर न तो कोई अफरातफरी मची और न ही खा़सोआम के जे़हन में संवेदनशील आह! ही उपजी। वजह साफ है। एकदम साधारण जनों की मौत पर देश की चैन को आग नहीं लगती। शान्ति में हाहाकार नहीं मचता है। आज की तारीख़ में शीर्ष कांग्रेसी नेताओं में शुमार राहुल गाँधी रायपुर पहुँच चुके हैं। सोनिया गाँधी के आगमन का संकेत मिल चुका है। इन नेताओं को बीती तारीख में घटी घटना की परवाह होती और वे इसी संवेदनशीलता के साथ वहाँ पहुँच गए होते, तो आज इस जवाबी हिंसक-दौर की नौबत नहीं आती।
अब यह देखा जाना होगा कि आँखवाले बुद्धिजीवी क्या करते हैं। संवेदना के राग बाँचने वाले सज्जन-वृन्द इस पर क्या पहलकदमी करते हैं? पूँजीदारों की मीडिया पुलिस सुरक्षा बलों की जवाबी(प्रायोजित) कार्रवाई की क्या पोल खोलती है? एक बात साफ है कि नक्सली अगर इस घटना को अंजाम बीजापुर की घटना से पहले दिए होते, तो उनकी शैतानी पर बरसने और उनके खिलाफ हरसंभव क्रूरतम कार्रवाई किए जाने का समर्थन करने का हमें पूरा हक था।
सवाल है, यह हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर थमे। जिन लोगों(स्त्री हो या पुरुष) के समक्ष नमक-रोटी के निवाले का इंतजाम नहीं। बदस्तूर जारी प्रशासनिक अव्यवस्था ने जिन्हें सहूलियत के नाम पर अपंग बना दिया है। जिनके सामने रोजगार के न तो साधन उपलब्ध हैं और न ही स्वास्थ्य और शिक्षा के इंतजमात। उन लोगों की संख्या को सरकारी-तंत्र साजिशन मौत के घाट उतारने के लिए हर खेल खेल सकती है; लेकिन उनकी सूरतेहाल बदलने का सार्थक विकल्प नहीं तलाशना चाहती है।.........,
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