www.garbhanal.com से साभार |
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किसी पत्रिका के प्रकाशन का कार्यभार बतौर सम्पादक संभालना आसान काम नहीं है। पत्रिका सम्पादक के लिए अपनी बेटी की मानिन्द है। और यह काम जैसे हर हफ्ते या पखवाडे या महीने में अपनी बेटी की शादी करने माफ़िक ही दुःसाध्य कार्य है। सम्पादक पाठकों को पत्रिका ऐसे सौंपता है मानों वे लड़की के देखनहार हों। यहाँ मर्जी पाठक की चलती है। कोई उसके नाक-नक़्श(पृष्ठीय साज-सज्जा: लेआउट) पर लहुलोट हो सकता है, तो कोई उसके सुर-राग(अन्तर्वस्तु-विधान: कंटेंट) में माधुर्य की थोड़ी कमी होने का उलाहना दे सकता है। यानी कोई कुछ तो कोई कुछ। बेचारी पत्रिका शब्दों में चाहे जितना भी चेतस हो; ऐसे पाठकों के कहे का प्रतिकार नहीं कर सकती; अपने पीछे लगे श्रमसाध्य भागदौड़, बनाव-रचाव में आई दिक्कतदारियों या और भी अन्यान्य परेशानियों के बाबत कुछ नहीं कह सकती है।
यह कठिनाई तब और पर्वत-पीर-सी हो जाती है जब एक सम्पादक आज के भयानक प्रतिस्पर्धा के बावजूद पूँजी-जलावर्त से गठजोड़-गठबन्धन नहीं करता है। आत्मबल की हेकड़ी पर जागरण-गीत गाते ऐसे सम्पादकों ने अब धीरे-धीरे इस दुनिया से विदा ले लिया है जो बचे हैं उनमें से अधिसंख्य के पास पद है...किन्तु रीढ़ की हड्डी नहीं है। ऐसे सम्पादकों के व्यक्तित्व में पत्रिका में लादे गए कृत्रिमता से अधिक बनावटीपन होता है जिसे पाठक की आँख पहचान लेती है।
लिहाजा, सम्पादक को ही सबकुछ वरण करना होता है; कभी-कभी असह््य सीमा तक पाठकीय तल्ख़ियों को सहन करना पड़ता है। जो कर्मठ हैं, निष्ठावान और समर्पित हैं वे टीके रहते हैं; पाठकीय प्रतिक्रिया का वस्तुपरक मूल्यांकन-विवेचन करते हुए आवश्यक परिष्कार और दुरुस्त परिवर्तन करते चलते हैं। पाठक जब किसी पत्रिका को दिल से पसन्द करने लगता है तो उस पर अपना सबकुछ निसार कर देता है। यही उस पत्रिका के सम्पादक की असली जीत है...मूल थाती है। यह बात आज की तारीख़ में ब्लाॅग-पत्रिकाओं के लिए भी सोलह-आना सच है। इस सचाई से अवगत होने के बावजूद कि अब तो कई पाठक भी ऐसे हैं जो कहते हैं-‘‘सबकुछ चलता है यार!’’
(रजीबा की पत्रिका-दृष्टि से)
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