...............................................................
प्रिय देव-दीप,
शिक्षा-प्राप्ति का कार्य सबसे कठिन योग है। यह भीतरी प्राणायाम है। बाहरी को हम तीन रूपों में जानते हैं: रेचक(साँस को छोड़ना), पूरक(साँस को भरना) और कुंभक(साँस को रोकना)। जबकि भीतरी प्राणायाम है: संज्ञान, चिन्तन और स्फोट। भारत की प्राचीनता गुरुओं की बलिहारी इसीलिए है क्योंकि ''गुरु ही समस्त श्रेयों का मूल है। वह जिसके वाक्य-वाक्य में वेद निवास करते हैं, पद-पद में तीर्थ बसते हैं, प्रत्येक दृष्टि में कैवल्य या मोक्ष विराजमान होता है, जिसके एक हाथ में त्याग है और दूसरे हाथ में भोग और फिर भी जो त्याग और भोग दोनों में अलिप्त रहते हैं।'' यह विषय वर्तमान पीढ़ी को भली-भाँति समझनी होगी। शिक्षा ही हमारे जीवन का मूलाधार है। यह एक ऐसा बीजतत्त्व है जिसमें शारीरिक-बौद्धिक क्षमता, प्राकृतिक गुण-सौन्दर्य, सामाजिक मूल्य-बोध, जीवन-बोध, नैतिकता, संकल्प, स्वप्न, कल्पना, चिंतन, विचार, व्यावहारिक दृष्टिकोण आदि बँधे होते हैं। इसी से मनुष्य बड़ा बनता है, विशाल कर्मों का कत्र्ता बनता है और मानवीय संचेतना से लैस सम्पूर्ण मनुष्य भी।
ज्ञान चाय, चाउमिन का काॅकटेल नहीं है। यह पैकेजिंग या बम्पर प्लेसमेंट का सहमेल भी नहीं है। ज्ञान अपने वास्तविक अर्थों में प्रकृति के साथ सहजीवन है। एक ऐसी लौ है जो बाहरी चुनौतियों-संघर्षों से जितनी टकराती हैं, अपने अन्तरतम में उतनी ही प्रकाशमान होती हैं। आज किताबों में जो कुछ मुद्रित है, जिस भाषा में मुद्रित है, जिस तरीके से और जिस तरह मुद्रित हैं; वे सब के सब ज्ञान नहीं हैं। ज्ञान भाषा और लिपि में कूटीकृत अवश्य होती हैं जिसे सही अर्थ तक पहुँचाने के लिए जरूरी माध्यम चाहिए होता है; और वह है गुरु-माता और गुरु-पिता। मुझे मिले हैं, सो मैं यह सच जान सका। यह जानकरी पूँजी के बदौलत नहीं पायी जा सकती है। इसके लिए चाहिए निष्काम भाव-बोध, सच्ची आस्था और जिज्ञासू प्रवृत्ति।
देव-दीप, मैं ज्ञान-प्राप्ति के मसले पर इसलिए इतना जोर दे रहा हूँ कि हमारा पूरा शैक्षणिक माहौल बहुरूपिए शिक्षा-तंत्र के हवाले है। विश्वविद्यालयों में योग्यता सम्बन्धी गुण-शील हँसी और माखौल का विषय है। कभी अभिमानयुक्त-स्वाभिमानयुक्त चेतना-बोध से सुसज्जित रहने वाले विश्वविद्यालय आज अनगिनत विसंगतियों का शिकार हैं। शिक्षा के उपदेशक धनाढ्य बनने को लालायित है। लिहाला, फलानां गुरुजी के पास 10 करोड़ की सम्पति है, तो चिल्लाने कुलपति जी के पास 50 करोड़ के ज़मीन-जायदाद। सामान्यजन जिनके लिए डाॅक्टर भी देवता, शिक्षक भी भगवान होता है; हैरान-परेशान है कि यदि शिक्षक का व्यक्तित्व चोर, मवाली, माफिया, अपराधी और भ्रष्ट राजनीतिज्ञ के समानधर्मा है, तो फिर बच्चे पाॅकेटमारी करें, तो उन्हें ताड़ना क्यों दें? किसी पड़ोस की लड़की के साथ छेड़छाड़ करें, तो उसे रिश्तों की संवेदनशीलता समझने और उसकी कद्र करने की दुहाई क्यों दें? यदि लड़के बात-बात में मारपीट और हिंसा पर उतारू हो जायें, तो उन्हें यह क्यों समझाये कि बिना अपनापा और घनिष्ठता के समाज में रहना दूभर हो सकता है? यदि अध्यापक का चरित्र खुद ही दूषित और आचरण अनैतिक हो, तो फिर हम बच्चों से किस मुँह से कहें कि अपनी चरित्र को खोना अपनी सबसे बहुमूल्य सम्पति/धरोहर को खोना है?
मेरी मानों तो बच्चों, बहाव के रौ में बहना एक बात है और अपनी मूल पहचान ही खो देना दूसरी बात। आजकल राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की बातें बढ़-चढ़ कर की जा रही हैं। लोग सुन भी रहे हैं। यदि लोग कुते की भौं-भौं को सुनकर ही जग जाने लगे, तो इसके लिए क्या हमें अपनी ‘मुर्गे की बांग’ वाली मुहावरा बदल लेने चाहिए। लोग तेजी से अपने जीवन जीने के तौर-तरीके बदल रहे हैं, भाषिक बोल-बर्ताव का ढंग बदल रहे हैं, हर कोई हर दूसरे से अलग/भिन्न दिखने को आतुर-बेताब है। समाज जिसके बारे में अरस्तू का कहना था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है; की मान्यता खारिज हो रही है। वर्जनाओं या रूढ़ियों को टूटने से हमें नहीं डरना चाहिए; लेकिन यदि इसे सिर्फ मौज के नाम पर तोड़ दिया जाये और उल्टे अपनी ज़िदगी को ही नारकीय बना लें, यह नहीं होना चाहिए।
खैर! आपसब ने मेरी आरजू-विनती सुन ली अब अपने हिसाब से खुश रहें, अपनी दुनिया में मस्त रहें...मेरी ओर सो नो रूल...नो बार!!
आपका पिता
राजीव
No comments:
Post a Comment