Friday, July 4, 2014

वर्तिका: ए लीडर आॅफ दोहागंज

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‘सहानुभूति जतलाने आये हैं, तो अपनी पाॅवर काहे दिखा रहे हंै।’

‘एई चशमलू....कबसे सुने जा रही हूँ। आप लोगन हमरी माई से जिस तरह एढ़ी-टेढ़ी बतिया रहे हैं न! बर्दाश्त नहीं हो रहा है। औरते रंडिया शहरी बाबुओं के लिए होती होंगी...हम गाँव की बेटियन हैं; हमन जल्दी बोलत नाहीं हैं...लेकिन जब हमारा मिज़ाज उखड़ जात है तऽ समझो बवंडर आई गवा बवंडर....’’

वर्तिका। खरी बोलने में उस्ताद। हाईस्कूल में जिला टाॅपर रही थी। उस रोज पंचायत में बोली, तो सबका दिमाग ही घूम गया। पुलिसखाने के हेड की तो बोलती बंद हो गई। एकदम से भकुआ गए। काफी देर तक वर्तिका को खा जाने वाली निगाह से घूरते-देखते रहे; लेकिन वर्तिका अपनी आँख नीचे नहीं की, तो नहीं की। हेडमास्टरनी की बेटी वर्तिका को जिसने भी पंचायत की सभा में बोलते हुए सुना...कईयों को तो जैसे काठ मार गया। मुख्य शहर से 12 किलोमीटर की दूरी पर बसे दोहागंज में पिछले दिनों गैंगरेप की वारदात हुई थी। पुलिस की आगवानी में पंचायत बुलाई गई थी। वर्तिका की माँ हेडमास्टरनी थीं। उन्होंने गाँव के अवारा लड़कों का नाम गिनाना शुरू किया तो जाति से बड़कुआ बनते कथित शरीफ़ानों को मिर्ची लगने लगी। कई तो आपे से बाहर हो गये। सभी हेडमास्टरनी को भला-बुरा कहने लगे थे।

वर्तिका से आखिरकार बर्दाश्त नहीं हुआ था। वह बीच में बोल पड़ी। उसके बोलते ही गाँव के अन्य लोग भी वर्तिका के समर्थन में आ गए। वर्तिका अकेली नहीं थी। गाँव की ढेरों औरतों ने थाना-पुलिस, मुखिया और सरपंच को अपनी बातों और आवाजों से छेंक लिया था। जिस घटना को भीतर-भीतर रफा-दफा करने की बात चल रही थी; वर्तिका के हस्तक्षेप के बाद उस सिलसिले में पुलिस को एफ.आर.आई. दर्ज करने पड़े। बाबूसाहबों का चिकन-मटन और दारू तंवा गया। जल्द ही वर्तिका की आवाज़ पूरे गाँव की आवाज़ बन गई थी। अख़बारों में भी रिपोर्ट छप गई। उन नामीगिरामी अख़बारों में जो ख़बरें उन्हीं की और उन जगहों की ही छापते हैं जहाँ से उन्हें विज्ञापन, परोक्ष सहयोग, राजनीतिक लाभ और मुनाफा आदि भरपूर मिलते हैं। आज दोहागंज की ख़बर छपी थी-‘बहादुर वर्तिका ने संभाला मोर्चा, गैंगरेप मामले में हुई एफ.आई.आर. दर्ज’।   

उस दिन के बाद वर्तिका आज दिखी थी। पड़ोस के सत्यनारायण की दुकान पर वह सौदा लेने आई थी। मैंने अपनी जगह से खड़े-खड़े हुलक कर उसे कई बार देखा था। वह थोड़ी-सी आड़ में थी। दुकान के एक तरफ चिमकिली का परदा लगा था जिससे उसका चेहरा तोपाया हुआ था। मैं इस फेर में था कि वह अब मुड़े कि तब मुड़े। लेकिन मेरी टकटकी जवाब दे गई। वह एकदम पंजरे से गुजर गई, लेकिन वर्तिका का चेहरा न दिखा। वह मुझे अख़बारी भैया कहती थी। उसे पता था कि मैं बीएचयू यानी बनारस में रहकर पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा हूँ। पिछले दिनों उसने पूछा, तो कहा कि अब मैं पीएच.डी. कर रहा हूँ। उसने कहा था-‘अरे! अब चाहे आप जो करो, मुझे तो बस वह दिन देखना है जब आपका नाम काले अक्षरों में अख़बार पर लिखा हो साफ-साफ।...... 

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