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विज्ञापन को बाज़ार में
उत्पाद-प्रक्षेपण का सशक्त साधन माना जा चुका है। इसका मुख्य लक्ष्य
उपभोक्ता की प्रतिष्ठा और जीवन-स्तर में अभिवृद्धि करना है। भारतीय
संदर्भों में विज्ञापन सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का महत्त्वपूर्ण कारक
है। वर्तमान में विज्ञापन और पूँजी दोनों एक दूसरे के पूरक अथवा पर्याय हो
चुके हैं। बगैर विज्ञापन के आधुनिक पूँजीवाद का विस्तार या उसके आधिपत्य की
कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज विज्ञापन ही तय करने लगे हैं कि कोई
विचार, सेवा या उत्पाद बाज़ार के हिसाब से बिक्री योग्य है भी या नहीं।
पूँजीवाद पोषित इस नवसाम्राज्यवादी विश्व में विज्ञापन का उत्तरोत्तर बढ़ता
कारोबार सन् 2020 तक 2 ट्रिलियन डाॅलर हो जाने की उम्मीद है।1 सिर्फ भारत
में विज्ञापन का कुल अनुमानित बाज़ार 8000 करोड़ रुपए से ज्यादा है। दो मत
नहीं है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को शीर्षाेन्मुखी करने में ‘विज्ञापन
युक्ति’ अनंत संभावनाओं से भरा-पूरा क्षेत्र है। ‘एड गुरु’ के नाम से मशहूर
प्रहलाद कक्कड़ की मानें तो “जनसंचार माध्यमों का इस्तेमाल करके अपने
उत्पाद की पहुंच लोगों तक बनाए रखने के उद्देश्य के मद्देनजर कंपनियों का
विज्ञापन बजट बहुत महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि कॉर्पोरेट जगत विज्ञापन को
खर्च की बजाए निवेश मानता है।”2 डाॅ डरबन के शब्दों में इसे युक्ति कहना
ज्यादा श्रेयस्कर होगा क्योंकि ‘‘इसके अन्तर्गत वे सब क्रियाएँ आ जाती हैं
जिनके अनुसार दृश्यमान अथवा मौखिक सन्देश जनता को सूचना देने के उद्देश्य
से तथा उन्हें या तो किसी वस्तु को क्रय करने के लिए अथवा पूर्व-निश्चित
विचारों, संस्थाओं अथवा व्यक्तियों के प्रति झुक जाने के उद्देश्य से
संशोधित किए जाते हैं।’’3
विज्ञापन अपनी स्वाभाविकता में ‘Larger than
life’ होता है; कुछ निर्धारित मानदंड हैं, जैसे कि उसका प्रमुख लक्ष्य किसी
सेवा या उत्पाद के विषय में परिचय कराना है। अगर कोई विज्ञापन अस्पष्ट है,
तो वह अपने उत्पाद का सही परिचय नहीं करा पाएगा। विज्ञापन हर वर्ग-समूह को
संप्रेषित करने योग्य होना चाहिए। किसी भी किस्म की पेचीदगी या उलझाव पाठक
के मन-चित्त पर उल्टा प्रभाव डाल सकती है। उपयुक्त बचाव यही है कि
विज्ञापन सही, सटीक, आकर्षक एवं विषय केन्द्रित हो। विज्ञापन के लिए चार
चीजों की अनिवार्यता होती है :
1) विक्रय की वस्तु
2) विज्ञापन का माध्यम
3)
संभावित क्रेता
4) उस क्रेता को आकर्षित-उत्प्रेरित करने का लक्ष्य।
इन
तत्त्वों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर जो तथ्य सामने आते हैं; वो यह कि
विज्ञापन में गहरी मनोवैज्ञानिकता अन्तर्निहित होती है। मनुष्य की विभिन्न
प्रकार की वृत्तियों को विज्ञापन के माध्यम से किसी निश्चित दिशा में
उद्बुद्ध, उत्तेजित और उत्प्रेरित किया जाता है। मनुष्य की जिज्ञासा तथा
उत्सुकता को जाग्रत तथा शमित करने की दिशा में विज्ञापन के कथ्य को सक्रिय
किया जाता है। मनुष्य की सुरक्षा-वृत्ति, सुख-सुविधा-वृत्ति,
खाद्य-वस्त्रादि के प्रति लोभ-मोह की वृत्ति, साहसिकता-वृत्ति,
संचय-वृत्ति, खेल-वृत्ति आदि का मनोवैज्ञानिक स्तर पर विज्ञापन अच्छी तरह
दोहन करते हैं। विज्ञापन उपभोक्ता-मन के अंतस पर किस प्रकार का प्रभाव
डालते हैं, इसकी पड़ताल करते हुए डाॅ0 सुवास कुमार आगे कहते हैं-‘‘विज्ञापन
का सम्बन्ध विशेष रूप से मनुष्य के चक्षुन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय से होता
है। शब्दों(लिखित और ध्वनित) तथा छवियों(चित्रों श्वेत-श्याम अथवा रंगीन)
की विज्ञापन में सर्वप्रमुख भूमिका होती है। यहाँ भाषा और विज्ञापन का आपस
में द्विविध सम्बन्ध होता है। पहला, भाषा की उच्चारणगत, प्रतीकात्मक,
संरचनागत विशेषताओं से विज्ञापन प्रभावित होते हैं। यानी उनका प्रभावकारी
उपयोग करते हैं। दूसरा, विज्ञापनों के द्वारा प्रयुक्त भाषा-रूपों में
कभी-कभी तीव्र मौलिकता दिखाई देती है जिनसे भाषा भी अन्तःबह्îि दोनो रूपों
में प्रभावित होती है।’’4
आज तकनीक और प्रौद्योगिकी के उन्नत प्रभाव
ने हर व्यक्ति को विज्ञापनों की इंद्रजालिक दुनिया में प्रवेश होने के लिए
बाध्य कर दिया है। जनमाध्यमों के नानाविध रूपों में फैलाव जिसे आजकल तकनीकी
भाषा में अभिसरण(Convergence)कहा जा रहा है, की वजह से आमजन के मानस पर
विज्ञापन का गहरा प्रभाव पड़ा है। औद्योगिक उत्पादों को बाज़ार-रणनीति के
बल पर आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से विकासशील देशों में पाटा जा रहा है।
इस तरह से विश्व की सांस्कृतिक विविधता नष्ट हो रही है। उनकी सृजनशीलता का
ह्रास हो रहा है और पश्चिमोन्मुख बहुराष्ट्रीय संस्कृति अपना आधिपत्य कायम
कर रही है। इस निरंतर और तेज परिवर्तन से बहुराष्ट्रीय सत्तातंत्र का
विश्व के सांस्कृतिक बाज़ार पर नियंत्रण की प्रक्रिया भी उतनी ही तेज होती
जा रही है।
ख्यातनाम पत्रकार संजय द्विवेदी की दृष्टि में ‘‘बाजार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारतीय बाजार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाजार अब सिर्फ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन चीजों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाजार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूपता के साथ प्रभावी हुई है।’’5
ख्यातनाम पत्रकार संजय द्विवेदी की दृष्टि में ‘‘बाजार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारतीय बाजार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाजार अब सिर्फ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन चीजों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाजार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूपता के साथ प्रभावी हुई है।’’5
अतएव, समाज में
बाज़ारवाद की वर्चस्वशाली संस्कृति तेजी से विकसित हुई है। लोगों को
उपभोक्ता बनाने की होड़ मची है। विज्ञापनकत्र्ताओं के निशाने पर
हैं-मध्यवर्ग, किशोर-किशोरियाँ, कामकाजी महिलाएँ, पुरुष तथा बच्चे।
मीडियाविद् सुभाष धूलिया इसका सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते
हैं-‘‘वैश्वीकरण के साथ-साथ जब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए
अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार की खोज में बाज़ार युद्ध में उतरीं तो विज्ञापनों
का भी युद्ध प्रारंभ हो गया। हर उत्पाद की मार्केटिंग के लिए
विज्ञापन-रणनीति महत्त्वपूर्ण अंग है। अधिकांश विज्ञापन उपभोक्ता वस्तुओं
से सम्बन्ध रखते हैं। इन वस्तुओं का बाज़ार शहरी मध्यवर्ग ही होता है जिनके
पास नए उत्पाद खरीदने के लिए अतिरिक्त क्रय-शक्ति है। विज्ञापन-उद्योग की
मीडिया पर निर्भरता इसकी प्रोग्रामिंग को भी प्रभावित करती है। अधिकांश
विज्ञापन-संदेश अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों के लिए होते हैं।
मीडिया की विज्ञापन-उद्योग पर भारी निर्भरता के कारण वही प्रोग्राम इसकी
प्राथमिकता में शुमार होते हैं जो अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों
में लोकप्रिय हों या लोकप्रिय बना दिए गए हों।’’6
(जारी....)
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