Tuesday, July 1, 2014

प्रत्याशा, हमारी बेटी

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वह ज़िन्दा होती, तो 8 साल की होती। लेकिन, प्रत्याशा जन्म लेने के एक हफ़्ते के भीतर गुजर गई।

हमने पहले ही सोच रखा था उसका नाम: प्रत्याशा। प्रत्याशा सिर्फ मेरी और सीमा की नहीं, हमारी....हम सबकी बेटी थी। वह उन सबकी बेटी थी जो मेरे परिवार से अपनापन रखते हैं, मोलजोल रखते हैं, हर मौके...अच्छे या बुरे, साथ खड़े होते हैं। भारतीय समाज-परिवार की यही सबसे बड़ी ताकत है, खूबी है और अपने ज़िन्दा रहने की सबूत भी कि यहाँ कहीं किसी आँख से लोर टघरना भी शुरू होता है तो समंदर बन जाता है। भारत में सुख-दुख दोनों में साझेपन की हरियाली है, साथगोई का रिवाज़ है। प्रत्याशा की आकस्मिक मृत्यु पर ढाढस देने वाले, हिम्मत बंधाने वाले अनगिनत थे। प्रत्याशा अकेली मरी थी, लेकिन उसकी इस बिछुड़न पर विलाप सभी रहे थे।

समय से इंजेक्शन न लग पाने के कारण वह मर गई थी। प्रत्याशा की मृत्यु पर खुद को अपराधिन मानती नर्स बिलख-बिलख कर बेजार रोई थी।.....

प्रत्याशा इकलौती नहीं थी जो मर गई। सरकारी दयानत और रहमोकरम पर जीते अपने देश में स्वास्थ्य और चिकित्सा की हालबयानी पर रोना सबको आता है, कुछ करना किसी को नहीं। प्रत्याशा क्यों और कैसे दम तोड़ दी? एक नवजात को दफनाए पिता से इस सवाल का जवाब देते नहीं बनता है; पढ़ाई-लिखाई की सारी डिग्रियाँ बंगले झाँकने लगती है और चेहरा अपनी ही तमाचे और घूसे की मार से सूज कर काला-नीला हो जाता है।.....

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...