असहमतियां आमंत्रित
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सभ्यता-संस्कृति के नाम पर अपने ज्ञान की ‘चुरकी’ हिलाने वाले सबकुछ जानने का दावा करते हैं; और ढोंग उससे भी अधिक। वे यह भविष्यवाणी करते हैं कि ईश्वर का अंत हो गया और ईश्वर के होने के इतिहास का भी खा़त्मा हो गया है।
इनके ‘इम्बेडेड रिसर्च’ के मुताबिक शेष बची हैं सिर्फ साम्राज्यवादी शक्तियाँ जिसके पास सत्ता-शक्ति का समूचा नियंत्रण है; सैन्य ताकते हैं और सर्वाधिक मात्रा में हस्तमुक्त फैला वह बाज़ार-तंत्र है जो उन्नत तकनीकी-प्रौद्योगिकी के माध्यम से लगातार (ड्रोन)सांस्कृतिक हमले कर रही है। पारिभाषिक भाषा की पहेलीदार परतों में यह भी बताया जा रहा है कि ज़िन्दा होने की अब पहली और आखि़री शर्त उपभोक्ता होना है। ख़बरचियों की चिल्लाहट मंे बयां होते नारों की बात करें तो उनके हवाले एक ही बात बार-बार दुहरायी जा रही है-‘देयर इज नो अल्टरनेटिव’। अमेरिकी उद्योगपति ने अपने समय को विशेष तरज़ीह देने के लिए कहा था-‘इतिहास थोथी बकवास है।’ आज हम इसी मुहावरे के उलटफेर में फँसे हैं। इतिहास के इसी नकार का दुष्परिणाम है कि आज हम अपनी परम्परा, विरासत, सभ्यता और संस्कृति से पूर्णतया कटे हुए दिख रहे हैं। इससे सम्बन्धित संज्ञान और स्मृति-बोध हमारे चेतन/अवचेतन से बाहर का विषय है। आधुनिक माध्यमों के ‘इनपुट’ में उनका आना शामिल नहीं है और भूल-चूक से आ गये, तो हम उनको हास्यास्पद बनाने से चुकते नहीं हैं।
आज पूँजी पूजनीय है क्योंकि यह समय ‘टाइम कलरिंग’ का है। सभी अपने-अपने हिसाब से समय का इन्द्रधनुष गढ़-बना अथवा रच-बुन रहे हैं। सब बे-फुरसत हैं क्योंकि सामूहिकता से अधिक सुख उन्हें उस वैयक्तिकता में मिल रहा है जो उन्हें ग्लोबल होने के अहसास से भरता है। इंटरनेट का एक ‘क्लिक’ मनचाहे साथी अथवा विपरीतलिंगी के बेडरूम में होना दिखाता है। यह साइबर-संसार का अनोखा लुर-लछन है जिसमें 8 साल का बच्चा भी सहवास करते स्त्री-पुरुषों का अंग-प्रत्यंग देख सकता है; बिना आग-पीछे जाने समझे सिसकारियों की दुनिया में गोता लगा सकता है। अब श्लील होना मनुष्य के मोबाइल फोन पर ‘पोर्नोग्राफी का अपलोड होना है। इसी को हमारे ‘अपडेट’ और ‘स्किलस होल्डर’ होने का निशानी माना जा रहा है। अब यह दक्षता/प्रवीणता मोबाइल-परदे से सीधे हमारे दिमाग में आवाजाही कर रहा है। इस मुक्त-प्रवाह में कोई औपचारिकता-निभाने का नैतिक दबाव नहीं है। अब तो स्थिति यह है कि आपके पड़ोस की आंटी कपड़ों में अस्त-व्यस्त दिखी नहीं कि आपने उनकी तस्वीर उतार ली; और अगले पल ‘वाट्स-अप’ के हवाले।
कहना न होगा कि फेसबुक ने हमारे युवा बर्ताव को अजूबे ढंग से बदला है। अब आप खुद को लाइक करना भूल रहे हैं क्योंकि आपका दिमागी गणित दूसरे का लाइक करने और अपने को लाइक किए जाने के फेरफार में उलझा है। आप गिनती में कुशल होना, जवाब देने में पटु होना,देखने में चिंकी होना, समझ में चम्पू होना मौजूदा समय में सही-सलामत होने का प्रमाण का प्रमाण मानने लगे हैं। अब तो ‘रेप’ का भी शब्दार्थ बदल चुका है। दरअसल, ‘डिजीटल रेप’ का ‘प्रोनाग्राफिक प्रजेंटेशन’ इतना रोमांचक और रोचक है कि वास्तविक दुराचार/दुष्कर्म की घटनायें उनका ‘बबरी’ तक नहीं नवाती; सर झुकाने की तो बात ही जुदा है। आजकल इन सब दुश्वारियों के बीच सिविल सोसायटी का टंटा बुलन्द है। ये खाये-पिये-अघाये लोगों का सोसायटिन ज़मात है जो शहरी बक्सबंन्दों में रहते है। कथित रूप से सभ्य उत्तर आधुनिक(?) कहलाते/उभरते ऐसे अधिसंख्य लोगों के यहाँ शहरी बदमाशियाँ और उत्पात इतने घिनौने और बड़े स्तर पर जारी है कि उसका फलांश समाज के उन तबकों पर पड़ रहा है जो इन बदमाशियों और उत्पात को खुद करने के लिए आतुर अथवा कुंठित है। यह नीचे का वर्ग भी 'लेस्बीयन' होना चाहता है या फिर 'गे' गैंग में शामिल होने का सपना बुन रहा होता है।
यह वह नई पीढ़ी है जिसकी किस्मत में फूटी कौड़ी नहीं है लेकिन बदलते ज़माने की हर वह ख़बर उसे नसीब है जिसे तकनीक और प्रौद्योगिकी ने सर्वसुलभ करा दिया है। यह आकास्मात नहीं हुआ है। इसे सोची-समझी रणनीति के तहत उच्च-शिक्षित(दुनिया को अब तक सबसे अधिक क्षति ऐसे ही तथकथित पुरोहितवादी लोगों से हुई है) लोगों ने ‘लांच’ किया है। वे देह के हर उस उभार को पूरे नंगापन के साथ बेचना चाहते हैं जिससे मनुष्य एक सांस्कृतिक मनुष्य न होकर उपभेक्ता हो जाये। वह उपभोगधर्मी चेतना के साथ नैतिक-आचरणों की धज्ज़ियां उड़ा दें। पारम्परिक मूल्यों की अवहेलना करके भी यदि वह अपनी इच्छापूर्ति कर लेता है, तो कोई बात नहीं। अब मनुष्य होने का अर्थ ही है सरोकारों से वंचित होना, सामाजिक अपेक्षाओं से दूर होना। अतः कठिनाई आज सिर्फ ख़ालिस मनुष्य होने-बने रहने में हैं.....
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