मन की देहरी पर भूमण्डलीकृत समाज और भाषा की दस्तक
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मानव-जीवन व्यवहार में प्रयुक्त भाषा मानसिक संधान एवं संघात का प्रतिफल है। यह यादृच्छिक ध्वनि.संकेतों की एक ऐसी संश्लिष्ट व्यवस्था है जिस पर किसी व्यक्ति का समस्त वाक्.व्यवहार निर्भर करता है। भाषिक स्फोट भाषा.अधिग्रहण तंत्र(Language
acquisition device) के माध्यम से घटित होता है। अभिव्यक्ति के एक महत्त्वपूर्ण एवं सशक्त साधन के रूप में भाषा का महत्त्व अन्यतम है। भाषा उन समस्त कार्य.व्यापारों को अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करती है जो प्रतीयमान अथवा दृश्यमान हैं। मानसिक धरातल पर उमगे संवेदनों, स्पंदनों, भावों और विचारों को ध्वनि रूपों या शब्द लहरियों(waves
of word) में ढालने का कार्य संवेदी तंत्रिका-तंत्र के जिम्मे होता है जो भाषा की वास्तविक निर्मात्री है। अभिव्यक्त भाषा की भाव-प्रकृति अथवा चित्त-गति कैसी और किस प्रकार की होगी? यह निर्धारण संचारक के मस्तिष्क से प्राप्त निर्देशों के आधार पर ज्ञानेन्द्रियाँ करती हैं। इस अंतःकार्य को सम्पादित करने में मानसिक सम्प्रत्यय, संज्ञानात्मक-बोध, प्रत्यक्षीकरण, अवधान, अधिगम इत्यादि की भूमिका सर्वोपरि मानी गई है। यह एक विशिष्ट प्रक्रम है जिसके सामाजिक अवदान को आधुनिक समाजभाषाविज्ञानियों एवं मनोभाषाविज्ञानियों ने स्वीकार किया है। उन्होंने भाषा के मानसिक व्युत्पति और व्यावहारिक अनुप्रयोग सम्बन्धी अनेकानेक निष्कर्ष प्राप्त किए हैं। उदाहरणार्थ-संकेतग्रह, बिम्ब-निर्माण, शब्दार्थ सम्बन्ध, अर्थविज्ञान, प्रोक्ति, अनुप्रयुक्त संचार इत्यादि.....
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