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सम्बन्धित को सम्बोधित
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महोदय/महोदया,
Why not our Mother-Tongue HINDI(हिन्दी) works towards
evolving a learning process and environment, which empowers the future
citizens to become global leaders in the emerging knowledge society?
How and why not?
वर्तमान तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी युग में विद्यालयी शिक्षा के
‘पैटर्न’/‘लेबल’/‘स्टाइल’ आदि में अपेक्षित बदलाव दृष्टिगोचर है; यह
सीबीएसई और एनसीईआरटी के सहभावयुक्त शुभेच्छा का द्योतक है जिसकी जितनी
भी सराहना की जाये वह कम है। आपसब की भलमनसाहत ही है कि आपने वर्तमान
शैक्षणिक-प्रणाली एवं शैक्षिक-वातावरण को लगातार व्यावहारिक एवं आनुभविक
बनाने पर जोर दिया है। आपके द्वारा प्रस्तावित अधिगम-पद्धति में
संज्ञान-बोध, चिन्तन, कल्पना, संवेदन, उत्तेजन, उद्दीपन, प्रत्यक्षीकरण,
संवाद, प्रोक्ति, प्रयुक्ति, माध्यम-चयन, सह-सम्बन्ध, सामूहिकता, नेतृत्व
इत्यादि का समावेशन इसी उत्कृष्टता और नवाचारयुक्त विद्यार्थी-केन्द्रित
शिक्षा का प्रमाण है। ठोस शब्दों में कहें, तो यह विद्यार्थियों को
सामाजिक प्राणी के प्राथमिक चरण से आध्यात्मिक मनुष्य बनाने तक की
सर्वांगीण विकास-यात्रा है। यथा: सामाजिक मनुष्य=> वैचारिक
मनुष्य=>राजनीतिक मनुष्य=> सांस्कृतिक मनुष्य=> आध्यात्मिक मनुष्य।
महोदय, इन सारी जरूरी कवायदों के बीच ‘भाषा और अभिव्यक्ति के प्रश्न’ को
जिस तरह हाशिए पर रखा जा रहा है; वह बेहद चिन्तनीय है। पाठ्यक्रम-आधारित
किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम की सफलता का उत्तारदायित्व
अध्यापकों/प्राध्यापकों द्वारा चुने गए भाषा-माध्यम पर निर्भर करता है।
लेकिन, अपने यहाँ की शिक्षा-प्रणाली इस सन्दर्भ में हमेशा उपेक्षा-भाव
बरतती रही है। सप्रमाण कहूँ तो मैंने स्वयं अकादमिक नियुक्तियों में अपने
प्रति नियोक्ता को हेय-दृष्टि अपनाते देखा है; क्योंकि मैं हिन्दी भाषा
को अधिकाधिक वैज्ञानिक, तकनीकी एवं प्रौद्योगिकीयुक्त नवाचार/अभिसरण से
संयुक्त/सक्षम बनाने का पक्षधर हूँ।(संलग्नक देख सकते हैं)
महोदय, यदि गाँधीजी के आत्मबल के बारे में बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाना
सर्वोचित है, तो फिर हिन्दीभाषी क्षेत्र के बच्चों को उनकी हिन्दी में ही
लिखित पुस्तकों को पढ़ाने पर सम्प्रेषणीयता का संकट क्योंकर उत्पन्न हो
सकते हैं? मुझे हिन्दी की तीमारदारी नहीं करनी है; बल्कि मैं उन
विसंगतियों की ओर इशारा करना चाहता हूँ जो आज शिक्षा-जगत के लिए यक्ष
प्रश्न बना हुआ है।
मुझे आशा ही नहीं पूर्ण-विश्वास है कि आप एक महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक-तंत्र
को विकसित/गठित किए जाने के क्रम में उपर्युक्त पहलूओं पर अवश्य ध्यान
देंगे और हमारी चिन्ता को इसमें शामिल कर हमारी मातृभाषा की गरिमा,
ज्ञानकोष और आध्यात्मिक चेतना को अक्षुण्णय बनाने में हरसंभव सहायता
प्रदान करेंगे।
सादर,
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005
Why not our Mother-Tongue HINDI(हिन्दी) works towards
evolving a learning process and environment, which empowers the future
citizens to become global leaders in the emerging knowledge society?
How and why not?
वर्तमान तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी युग में विद्यालयी शिक्षा के
‘पैटर्न’/‘लेबल’/‘स्टाइल’ आदि में अपेक्षित बदलाव दृष्टिगोचर है; यह
सीबीएसई और एनसीईआरटी के सहभावयुक्त शुभेच्छा का द्योतक है जिसकी जितनी
भी सराहना की जाये वह कम है। आपसब की भलमनसाहत ही है कि आपने वर्तमान
शैक्षणिक-प्रणाली एवं शैक्षिक-वातावरण को लगातार व्यावहारिक एवं आनुभविक
बनाने पर जोर दिया है। आपके द्वारा प्रस्तावित अधिगम-पद्धति में
संज्ञान-बोध, चिन्तन, कल्पना, संवेदन, उत्तेजन, उद्दीपन, प्रत्यक्षीकरण,
संवाद, प्रोक्ति, प्रयुक्ति, माध्यम-चयन, सह-सम्बन्ध, सामूहिकता, नेतृत्व
इत्यादि का समावेशन इसी उत्कृष्टता और नवाचारयुक्त विद्यार्थी-केन्द्रित
शिक्षा का प्रमाण है। ठोस शब्दों में कहें, तो यह विद्यार्थियों को
सामाजिक प्राणी के प्राथमिक चरण से आध्यात्मिक मनुष्य बनाने तक की
सर्वांगीण विकास-यात्रा है। यथा: सामाजिक मनुष्य=> वैचारिक
मनुष्य=>राजनीतिक मनुष्य=> सांस्कृतिक मनुष्य=> आध्यात्मिक मनुष्य।
महोदय, इन सारी जरूरी कवायदों के बीच ‘भाषा और अभिव्यक्ति के प्रश्न’ को
जिस तरह हाशिए पर रखा जा रहा है; वह बेहद चिन्तनीय है। पाठ्यक्रम-आधारित
किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम की सफलता का उत्तारदायित्व
अध्यापकों/प्राध्यापकों द्वारा चुने गए भाषा-माध्यम पर निर्भर करता है।
लेकिन, अपने यहाँ की शिक्षा-प्रणाली इस सन्दर्भ में हमेशा उपेक्षा-भाव
बरतती रही है। सप्रमाण कहूँ तो मैंने स्वयं अकादमिक नियुक्तियों में अपने
प्रति नियोक्ता को हेय-दृष्टि अपनाते देखा है; क्योंकि मैं हिन्दी भाषा
को अधिकाधिक वैज्ञानिक, तकनीकी एवं प्रौद्योगिकीयुक्त नवाचार/अभिसरण से
संयुक्त/सक्षम बनाने का पक्षधर हूँ।(संलग्नक देख सकते हैं)
महोदय, यदि गाँधीजी के आत्मबल के बारे में बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाना
सर्वोचित है, तो फिर हिन्दीभाषी क्षेत्र के बच्चों को उनकी हिन्दी में ही
लिखित पुस्तकों को पढ़ाने पर सम्प्रेषणीयता का संकट क्योंकर उत्पन्न हो
सकते हैं? मुझे हिन्दी की तीमारदारी नहीं करनी है; बल्कि मैं उन
विसंगतियों की ओर इशारा करना चाहता हूँ जो आज शिक्षा-जगत के लिए यक्ष
प्रश्न बना हुआ है।
मुझे आशा ही नहीं पूर्ण-विश्वास है कि आप एक महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक-तंत्र
को विकसित/गठित किए जाने के क्रम में उपर्युक्त पहलूओं पर अवश्य ध्यान
देंगे और हमारी चिन्ता को इसमें शामिल कर हमारी मातृभाषा की गरिमा,
ज्ञानकोष और आध्यात्मिक चेतना को अक्षुण्णय बनाने में हरसंभव सहायता
प्रदान करेंगे।
सादर,
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005
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इसी 31 अगस्त को परीक्षा दिल्ली केन्द्र पर आयोजित हुए।
सारे वस्तुनिष्ठ प्रश्न अंग्रेजी में दिए गए थे।
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