सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत लोहिया
(संस्कृति-समाज और भाषा के अन्तःसम्बन्धों की पड़ताल)------------------------------------------------------------
समाजवादी विचारधारा के मूल-स्तंभ डाॅ0 राममनोहर लोहिया का जीवन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों एवं अनुपम योग्यता से पूरित था। भारतीय राजनीति में उनकी छवि एक ऐसी राजनेता की थी जो ठोस सामाजिक परिवर्तनों के प्रति समर्पित थे। वे महात्मा गाँधी की भाँति सर्वजनसुलभ थे।
सप्तक्रांति सिद्धांत के जनक डाॅ0 राममनोहर लोहिया को आज भी लोग ‘जनतंत्र’, ‘न्याय’ और ‘समानता’ का सबसे बड़ा हिमायती मानते हैं। सन् 1942 में जब महात्मा गाँधी समेत अन्य नेताओं को बन्दी बना लिया गया तब प्रतिरोध की मशाल को राममनोहर लोहिया और उनके समानधर्मा साथियों ने प्रज्ज्वलित रखा। गाँधी के इस मानस पुत्र के विषय में गणेश मन्त्री का कथन है, ‘‘लोहिया गाँधी नहीं थे। वे किसी की अनुकृति हो भी नहीं सकते थे। गाँधी संत योद्धा थे। एक ऐसा संत जिसे युग की परिस्थितियों ने योद्धा बना दिया था। अथवा, फिर ऐसा योद्धा जो संघर्षों में तपते-तपते संत बन गया। किंतु, लोहिया बिना कुटी के हो कर भी संत नहीं थे। वे माक्र्स भी नहीं थे। माक्र्स ऋषि या द्रष्टा थे। 19वीं सदी के यूरोपीय वर्तमान की दहलीज पर खड़े, अतीत के व्याख्याकार और भविष्य के प्रवक्ता थे माक्र्स। लोहिया को भी माक्र्स की तरह इतिहास की अंतर्धारा, सभ्यताओं की उथल-पुथल को समझने में गहरी दिलचस्पी थी। लेकिन मनुष्य-इतिहास को किसी खास लौह-नियम या विचार-साँचे में जकड़कर देखने-रखने की उनकी कोई इच्छा नहीं रही। इसी कारण लोहिया अनेक नये विचारों के प्रतिपादक और व्याख्याता तो रहे, परंतु किसी एक बंद विचार-प्रणाली के निर्माता नहीं बने।’’
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल से ज्ञान, स्वतंत्रता और प्रतिरोध का पाठ प्रारंभ करने वाले लोहिया असाधारण प्रतिभाशाली युवक थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व आन्तरिक अनुशासन को तो स्वीकार करता था, बाह्î दबाव को नहीं। उनके व्यक्तित्व के तीन मुख्य घटक थे-मानवीयता, विवेक-विक्षोभ और संकल्प। ये घुल-मिलकर मनुष्य की आन्तरिक शक्ति बन जाते हैं जो दूसरे मनुष्यों के सन्दर्भ में मानवीय करुणा को लोकमंगल तक विस्तार देते हैं। स्वयं के संदर्भ में इच्छा, चयन, संकल्प और क्रिया की अधिकतम संगति से डाॅ0 लोहिया ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के ताने-बाने बुने।
डाॅ0 लोहिया मातृभाषा हिन्दी की उन्नति के ही पक्षधर नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रांतों में व्यवहृत महत्त्वपूर्ण भाषाओं को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के पक्षधर थे। उनकी दृष्टि में पूर्व-पश्चिम-उत्तर बनाम दक्षिण जैसी कोई संकीर्ण अवधारणा नहीं थी। डाॅ0 लोहिया की संकल्पना को मूत्र्त रूप देते हुए उनके सहयोगी मित्रों ने हिन्दी की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ हैदराबाद से प्रकाशित की। चर्चित विचारक-लेखक यू. आर. अनन्तमूर्ति एक संस्मरण में कहते हैं, ‘‘रामनोहर लोहिया ने मुझे कहा कि तुम कन्नड के लेखक हो और तुम्हंे कन्नड को सार्वजनिक जीवन में उपयोग के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। उनकी यह मान्यता थी कि शिक्षा के क्षेत्र में प्राथमिक से स्नातक तक की पढ़ाई मातृभाषा में होनी चाहिए....
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