Sunday, September 7, 2014

यह ज़िन्दा गली नहीं है


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माही का ई-मेल पढ़ा। खुशी के बादल गुदगुदा गए।

जिस लड़की के साथ मेरे ज़बान जवान हुए थे। बुदबुदाए।

‘‘बिल्कुल नहीं बदली....’’

अंतिम शब्द माही का नाम था, उसे मन ने कह लिया था। लेकिन, मुँह ने मुँह फेर लिया।
(आप कितने भी शाहंशाह दिल हों....प्रेमिका से बिछुड़न की आह सदा शेष रहती है)

उस घड़ी मैं घंटों अक्षर टुंगता रहा था। पर शब्द नहीं बन पा रहे थे। रिप्लाई न कर पाने की स्थिति में मैंने सिस्टम आॅफ कर दिया था। पर मेरे दिमाग का सिस्टम आॅन था। माही चमकदार खनक के साथ मानसिक दृश्यों में आवाजाही कर रही थी। स्मृतियों का प्लेयर चल रहा था।

‘‘यह सच है न! लड़कियाँ ब्याहने के लिए पैदा होती हैं, और लड़के कैरियर बनाने के लिए ज़वान होते हैं। मुझे देखकर आपसबों को क्या लगता है?’’

बी.सी.ए. की टाॅप रैंकर माही ने रैगिंग कर रहे सीनियरों से आँख मिलाते हुए दो-टूक कहा था। तालियाँ बजी थी जोरदार। उसके बैच में शामिल मुझ जैसा फंटुश तक समझ गया था। माही असाधारण लड़की है। लेकिन, मैं पूरी तरह ग़लत साबित हुआ था। माही एम.सी.ए. नहीं कर सकी थी। पिता ने उसकी शादी पक्की कर दी थी। उस लड़के से जो एम. सी. ए. का क...ख...ग भी नहीं जानता था। माही ने एकबार भी इंकार नहीं किया था।(अपने माता-पिता या अपने अभिभावक का सबसे अधिक कद्र आज भी लड़कियाँ ही करती(!)हैं।)

माही का पति बिजनेसमैन है। स्साला एकदम बोरिंग। हमेशा नफे-नुकसान की सोचने वाला। शादी के बाद भी माही से जिन दिनों बात होती थी। वह बताती थी-‘‘राकेश की सोच अज़ीब है, वह मानता है कि सयानी लड़कियों को लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए; लड़कियाँ ख़राब हो जाती है।’’

‘‘ये सामान बेचने वाले हमेशा ख़राब-दुरुस्त और नफे-नुकसान की ही सोचते हैं...,’’

मैंने कहा। माही तुरंत फुलस्टाॅप लगा दी। विवाहित लड़कियाँ चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी हों अपने सुहाग(?)के बारे में ज्यादा खिंचाई बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं। वैसे हम दोनों हँसे खूब थे।

अब तो उसकी हँसी सुने अरसा हो गया है। आज उसने ई-मेल किया है। वह भी यह बताने के लिए कि बच्ची हुई है...और स्वभाव में बिल्कुल मुझ पर गई है।

माही के बिल्कुल न बदल सकने वाली बात ऊपर के पैरे में मैंने इसीलिए कहा था।

‘‘ओए मंजनू के औलाद...सो गए,’’

‘बोल न कम्बख़्त, क्या मैं किसी को चैन से याद भी नहीं कर सकता...., दो मिनट!’’

‘‘खुद तो माही महरानी बन गई...अब माताश्री भी; मजे लो...।’’

पार्टनर जीवेश और मेरी खूब बनती थी। उसने मुझे माही पर एतबार करते हुए, उसके लिए अपना सबकुछ लुटाते हुए देखा था...अब उन्हीं आँखों से मुझे लूटते हुए भी देख रहा था।.....
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(कहानीकारों की ज़िन्दा कौमे हैं....अफ़सोस गलियां ज़िन्दा नहीं हैं.....खै़र! फिर कभी...)

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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