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किसी भी देशीय-वातावरण में,
दिक्-काल में,
सांस्कृतिक-साभ्यतिक जीवनचर्या में,
‘शब्द’ और ‘अर्थ’
आपसदारी का सम्पृक्त-भाव
बोध/अनुभव कराने में सफल तभी हो पाते हैं, जब समाज में
संयुक्त-परिवार अपने रचाव-बनाव, गठन,-संगठन एवं व्यवहार-नेतृत्व में
सापेक्षतया कार्यशील, गतिशील और उत्तरोत्तर परिवर्तनशील अथवा उन्नतशील बने रहते हैं।
इस घड़ी भारतीय समाज इसी ‘मनो-संकट’(यथार्थ और विभ्रमयुक्त) से बुरी तरह जूझ रहा है।
- प्रो़. आर्जीव
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