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*इसी शीर्षक से लिख रहे अपनी पुस्तक में राजीव रंजन प्रसाद
भारतीय की धार्मिक मान्यताएँ बेजोड़ हैं। आर्यों के आगमन-पूर्व भारतीय मनीषा पंचस्कन्ध से पूरित थी। यह धार्मिक विलक्षणता पंचस्कन्ध(देशगत, कालगत, आकारगत, विषयगत और गतिगत)कहे गये हैं। इनकी प्राण-प्रतिष्ठा मनुवंशयिों ने नहीं की; क्योंकि उनकी चारित्रिक निष्ठा संदिग्ध थी। मनुवंशी वर्ण-व्यवस्था के घनघोर समर्थक थे जबकि पंचस्कन्ध के उद्घोषक वर्ण-व्यवस्था को सामाजिक जकड़बन्दी का पर्याय मानते थे। उनके लिए जो सर्वोपरि था; वह था: सत्य, अहिंसा, आस्तेय, दान, भूतदया, ब्रह्मचार्य, दयालुता, करुणा, धैर्य और क्षमा। इन सभी सनातन-भावों से पूर्ण मनुष्य को ही भारतीय ऋषि-मुनियों ने ‘शुद्ध योनि’ माना। बाद के समय में खलकलुष प्रवृति के मतावलम्बियों ने इन्हीं को ‘शूद्र’ कहना शुरू कर दिया। आज तक प्रचलन में यही अवधारणा बनी हुई है जिसे बनाये रखने में मनुवंशियों/ब्राह्मणवादियों का योग सर्वाधिक है...
*इसी शीर्षक से लिख रहे अपनी पुस्तक में राजीव रंजन प्रसाद
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