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चीख-पुकार से सनी धरती का भविष्य क्या होगा? चिल्ल-पों, शोरगुल और कोहराम की ध्वनि-तरंगें एक नए तरह का समस्या पैदा करने जा रही हैं-‘साउंडहोल’।
यह ‘ब्लैकहोल’ की तरह ही है। दोनों में फर्क बस इतना है कि एक प्रकाश को दबोचता है और दूसरा हमारे सोचने-विचारने की क्षमता को।
अब दिमाग के परखच्चे उड़ने वाले हैं। सामान्य मनुष्य की श्रवण-सीमा 20
हट्र्ज(Hz) से 20 हजार हटर्ज(Hz) तक ही सुनिश्चित है। क्या होगा जब सारी
ध्वनियाँ उच्च तीव्रता पर गतिमान होंगी? खैर! यदि आप यह सोच रहे हैं कि हम
सुरक्षित और निश्चिंत हैं; तो कोई बात नहीं? लेकिन यह बात अवश्य गौरतलब है
कि मौजूदा मशीनी कौंध में हम पुरानी अपनापायुक्त मौन खो चुके हैं या
खोते जाने को अभिशप्त हैं। आजकल मौन, चुप और खामोश रहना एक किस्म का
दब्बूपन माना जाने लगा है। इसलिए लोग न चाहते हुए भी खूब बोल रहे हैं,
तेज बोल रहे हैं या फिर बोलती हुई दुनिया के बीच अपने को रखने की हरसंभव
कोशिश कर रहे हैं। यह बोल-बचन कितनी घातक और खतरनाक है, इसका हमारे पास
अभी कोई साफ-सुथरा मानचित्र नहीं है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि लिखित
सामग्री भी हमारे भीतर ध्वनि का सृजन करती हैं। जैसे ही हम कोई शब्द सोचते
या उसे लिखते हैं, उनका मस्तिष्क में कई बार ‘स्फोट’ हो चुका होता है।
इसीलिए कहा जाता है कि सोचने-विचारने में बोलने से अधिक ऊर्जा लगती हैं।
लेकिन उनकी त्वरा और प्रभावी बल कम होने के कारण वे हमारे स्नायु-तंत्र एवं
मस्तिष्कीय-कोशिका को कोई नुकसान/क्षति नहीं पहुँचा पाती हैं। लेकिन बोलते
हुए हमारी स्नायु-तंत्र को भीषण तरीके से कार्यशील रहना पड़ता है। कृत्रिम
माहौल या यांत्रिक गतिविधियों में यह हमसे अतिरिक्त शारीरिक-मानसिक
चेष्टाओं/उपक्रमों की मांग करती हैं। अतः फेसबुक/टिवटर, ब्लाॅगों एवं
सोशल-नेटवर्किंग साइटों पर हमारा होना या वहाँ दिखने वाली अतिसक्रियता भी
इसी बीमारी का हिस्सा है। इन दिनों सेलफोन के ईजाद ने हाथों की लिखावट और इशारों/संकेतों की
भाषा पर विरामचिह्न लगा दिया है या फिर उन आदत-व्यवहारों को इतना
सूक्ष्म-गूढ़ बना दिया है कि उसमें अधिक मानसिक-शारीरिक श्रम लगते हैं। यह
भी एक किस्म का आधुनिक ईजाद है जो परोक्ष ‘साउंडहोल’ की भूमिका में
मानव-जीवन का शत्रु बना हुआ है। लिहाजा, भौतिक गतिकी की दौड़ में खूब बोलना
और बोलती हुई दुनिया के बीच धंसे/गुमे रहना हमारी विवशता बन चुकी है। ‘मौन
भी अभिव्यंजना है’ वाली बात अब खुद को पिछडे़पन के अहसास से भरने लगा है। लगातार बोलते जाना या बोलते हुए भौड़ा आचरण प्रदर्शित करना जैसे सभ्य और
संस्कारयुक्त होने की पहली और आखिरी शर्त हो।
आज आदमी होने की तमीज बेतरह जीने का फलसफ़ा है। बेवजह बोलने की अदाकारी है
और बेतरतीब तरीके से आचरण-व्यवहार करना पसंदीदा शगल है। जो भी हो हमारे
भीतर का शोर-शराबा हमें पूरी तरह अपअपनी जकड़न में ले चुका है। हम चाहकर भी
अब चुप्पी साधे नहीं रह सकते हैं। हमें प्रतिक्रिया देना ही होगा। हर हाल
में बोलना ही होगा। गुस्से में उबलना और बात-बात पर क्रोधित होना होगा।
क्योंकि ‘साउंडहोल’ का कीटाणु हमारे आत्मबल और सयंम को लगातार खाए जा रहा
है। हमारे शरीर की मूल प्रकृति हमारी अपनी ही करतूतों का शिकार हो चुकी
हैं। यानी हमारा भविष्य हमारे ऊपर चिल्ला रहा है...यह पुस्तक ‘फ्युचर क्राईंग’(Future Crying) इसी समस्या पर केन्द्रित है या कहें मानव-मन की मनोवैज्ञानिक/मनोभाषिक पड़ताल है।
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*फरवरी, 2016 तक पाठकीय शुभेच्छा एवं आग्रह पर प्रकाशित किए जा सकने की संभावना है।
-माॅडरेटर
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