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सनद रहे आज की इंटरनेटी दुनिया जिसे डिजीटलाइज़्ड किए जाने पर जोर है; ने भारतीय भाषा-जगत के मूर्धन्य साहित्यकार यू. आर. अनंतमूर्ति जिनका पूरा नाम उडुपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति है के निधन का तथ्य(आँकड़ा) तुरंत अपने जानकारी के शब्दकोश में शामिल कर लिया है। यह कमाल हमारे ‘ह्युमनाइज़्ड’ होने पर सर्वथा भारी है....और आगे के दशकों में हमें ऐसे ही कमालों के बीच जीने का आदी होना है।
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इस संस्कारहीन समय में कुछ भी जाना राजनीतिक घाटे का सौदा नहीं है। लेकिन, जो समाज और संस्कृति की आँख से देखने-सुनने-जानने वाले हैं उनके लिए यू. आर. अनंतमूर्ति का देहावसान विकल करने के लिए काफी हैं। क्यों रचता है कोई साहित्य? क्यों मरता है अपनी रचनाओं में कोई रचनाकार तिल-तिल? क्योंकर कोई लोक-संवेदी सर्जक नहीं लपक लेता हर एक ‘आॅप्चुयूनिटी’ को जो उसे महान से महानतम सिद्ध करते हैं? क्या कोई व्यक्ति यों ही बन जाता है कन्नड़ साहित्यकार अनंतमूर्ति की तरह विशालकद जिसे रूसवाई भी मिलती है ज़माने से तो भी वह बददुआ नहीं देता अपने ज़मानेदार को?
साहित्य क्या है? मेरे जैसे नौसिखुए पत्रकारीय अनुभव वाले विद्यार्थी के लिए अमूर्तन सत्य की मूर्त अभिव्यक्ति; यथार्थ की स्वीकृति और संस्कार की निर्मिति का खुला वातायन। हो सकता है आप के विचार कुछ और हों; लेकिन सत्य गणितीय-समुच्चय में प्रयुक्त होने वाले ‘फाई’ की तरह सबमें उपस्थित है। हाँ, वह जगज़ाहिर नहीं है...लेकिन उसके होने के लिए अस्वीकार-भाव भी नहीं है। अतः साहित्य जो भी हो सचाई से विलग अथवा अलग कोई सत्ता हरग़िज नहीं है।
हिन्दी साहित्य में अज्ञेय का नाम बहुपठ्य है। उनका कहना था कि ‘लोक-साहित्य के प्रति न तो रोमानी दृष्टि चाहिए और न तिरस्कार की।’ यू. आर. अनंतमूर्ति इस फ़लसफ़े के सजग यात्री थे। वे यह जानते थे कि ऊँचे से ऊँचे ज्ञान की सार्थकता तब होती है जब वह प्रकृत होकर यानी चारों तरफ पसरकर सामान्य से सामान्य जन तक पहुँच जाये। सर्वसाधारणीकरण की यह जिद्दी धुन कभी-कभी भयानक और तकलीफ़देह तंगनज़र का शिकार भी होती है....यू. आर. अनंतमूर्ति भी हुए। बीते चुनाव में उन्होंने नरेन्द्र मोदी के चुनाव जीत जाने की स्थिति में भारत छोड़ देने का ऐलानिया अभिव्यक्ति दी थी; इस बयान को लेकर देश में उनकी समग्र आलोचना हुई; वे हाशिए पर गये और अंततः स्वर्गसिधार गये।
माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजली दी है। आज जब जनता ट्वीट-चेतना से संवेदित-सवंर्द्धित है; वह यू. आर. अनंतमूर्ति के जाने पर कितना शोक-संवेदित होगी, व्यथित होगी....पता नहीं। हिन्दी साहित्य के गढ़ कहे जाने वाले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पूरी तरह सन्नाटा पसरा है। इस घनघोर कालरात्रि में मँजे सिद्ध साहित्यिक ज़मात किस करवट उबासी ले रहे होंगे; इसका मुझे साफ अंदाजा है। लेकिन इस अंदाजे से हमारी जीत सुनिश्चित नहीं होती है; हम लगातार खाइयों की गहराई में घुसते जा रहे हैं.....यदि हमारे रवैए, व्यक्तित्व, व्यवहार में में जरूरी बदलाव नहीं हुआ...तो आने वाले समय में सारा समाज विक्षिप्त, पागल, बदहवाश, हिंसक, हत्यारा, दुराचारी, कृपण, स्वार्थी.....होगा; निश्चय जानिए। यह भी जानिए कि अपना ‘संस्कार’ खोना या कि यू. आर. अनंतमूर्ति जैसे लोक-सर्जकों को इस तरह खोना.....अपने भावी पीढ़ी के भविष्य को खोना है। आप सुन रहे हैं... न!
मेरी यह यह आगाहबानी सिर्फ मौजी नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि मेरी कोई आप पर अख़्तियार या कुव्वत भी नहीं है। मुझे तो यह अधिकार भी नहीं मिला है कि मैं आपसबों के लिए, आपसबों के भविष्य के लिए, आने वाले समय के बेहतर रचाव-बसाव के लिए ठीक से सोच भी सकूं। तमाम योग्यताओं के बावजूद जब आप दोरोहे पर होते हैं, तो आप मृत्यु के साथ खड़े होते हैं। उस के साथ जिसके बाद दुनिया बनाने के लिए आपकी आत्मा के पास भुजा-शरीर, दिमाग और दिल नहीं होते हैं। खैर, हम जैसे लोग जिस आत्मबल पर अंतिम क्षण तक प्रतिकार और प्रतिरोध का अचूक/अमोघ संसार रचते हैं, वह यू. आर. अनंतमूर्ति जैसे दिव्य-पुरुषों की ही देन है। जाओ अनंत, तुम्हारे पीछे हमारा आना भी तय है।
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