Tuesday, August 12, 2014

भारत का उत्तर वेद

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घोर आश्चर्य है कि जिस वेद को अपौरुषेय अथवा अनिर्वचनीय कहा गया है; वह आज की भाषा में ‘डाउन टू अर्थ’ नहीं है। देवी-देवताओं की जिन ‘एलियननुमा’ फौजों का गुणगान/स्तुति ऋग्वेद में विद्यमान है वह उन लोगों द्वारा महिमामंडित है जिनका लोक-विधान और लोक-मर्यादा से कोई वास्तविक-रिश्ता नहीं था। ये ऐसे लोग थे जो पापाचार और कदाचार में आकंठ डूबे थे। रामशरण शर्मा ठीक ही कहते हैं कि-ऋग्वेद में वैदिक जनों के जिन नेताओं को आर्य कहकर गुणगान किया गया है वे या तो समृद्ध थे या अभिजात थे। उनकी नस्ल वर्तमान सत्ताशाही की तरह ही जनचेतना से विमुख थी। उनकी पक्षधरता और सरोकार अपने कुल/वंश के लोगों तक सीमित थी। अपनी वृद्धि और विकास के लिए उन्होंने कई विश्वासों को सामाजिक प्रथा के रूप में चला रखा था। ‘‘आर्यों की पहचान ऋग्वेद में इस बात से होती थी कि वे (अ)व्रत का पालन करते थे, (अ)यज्ञ करते थे।’’ इसके विपरीत जिन्हें आर्यो ने अव्रति कहा है; वास्तव में वे विशुद्ध व्रती थे, लोकमंगल की भावना से पूरित सच्चे मनुष्य थे। जनकल्याण के निमित अपना सबकुछ होम/दान कर देना सामान्य बात थी।  विश्व-दृष्टिकोण और सच्चे अर्थों में ‘सत्यं शिवम् सुन्दरम्’ के कत्र्ता ‘शुद्ध/शूद्य’ लोग थे जिनकों ऋग्वेद के कथित धर्मात्माओं(मौजूदा राजनीतिज्ञों) ने दस्यु कहा है। ऋग्वेद के हवाले से रामशरण शर्मा कहते हैं-‘‘दस्युओं जिनसे आर्यो का सतत संघर्ष चल रहा था, अव्रत और अपव्रत कहा गया है। दस्यु को अयज्वन अर्थात यज्ञ नहीं करनेवाला बतलाया गया है। दस्यु यज्ञ नहीं करते थे। यज्ञ नहीं करने के कारण उन्हें अक्रतनु कहा गया है। वे दूसरे प्रकार का अनुष्ठान करते थे जिससे उन्हें अन्यव्रत कहा गया है।’’

दरअसल, आर्यो का यज्ञ-विधान प्रपंच और पाखण्ड का धत्कर्म था। उसमें ‘समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व’ जैसे आधुनिक विचार या आधुनिकता बोध समाहित नहीं थी। तब भी अनार्यों ने इस परम्परा को अनदेखा नहीं किया। पर भारी गड़बड़ी इस प्रथा में यह थी कि आर्यों द्वारा चालित इन यज्ञों में भारी-भरकम दान देने की परम्परा थी जिससे च्यूत होने पर मृत्यु तक का भागी होना पड़ता था। कुकर्मी आर्यों की संताने अनार्यों की कुँवारी कन्याओं तक का अपहरण कर लेते थे। उनका यौन-शोषण करते थे या उनकी हत्या कर देते थे। कई प्रतिकार की चेतना वाली मुखर स्त्रियों को इन्होंने ‘डायन’ या ‘कुलटा’ कर सरेआम मौत की सजा दे दी।  ‘शूद्य’(सही अर्थों में जो पूर्णतः शुद्ध है, पवित्र और निर्मल है) जिन्हें आज शूद्र कह अपमानित किया जा रहा है वे आज भी इसी ताड़ना/कोप को भुगत रहे हैं क्योंकि वे आज भी अपनी सत्ता-शक्ति और सामथ्र्य में केन्द्र में नहीं हैं; और जो केन्द्रीय सत्ता में है वह आज भी पुराने मानसिकता वाले जनशोषक आर्यों के वंशकुल के लोग/जन हैं।

वर्तमान में भी ‘शूद्य’ लोग वे ही हैं जो अभिजात नहीं है; जो बलशाली और पराक्रमी नहीं हैं। लेकिन वे ऐसा क्यों नहीं बन सके, इस बारे में सुचिंतित सोच, दृष्टि अथवा विचार का पूर्णतया अभाव है। ऋग्वेद जिसको सवर्ण आज भी कथित रूप से निष्कलुष कहे जाने की जिद ठानते हैं या अपनी उच्च चेतना का जिसे वे स्रोत घोषित करते हैं; वह वास्तव में अन्यायमूलक एवं शोषणमूलक है। यह इसलिए भी कि ‘‘संस्कृत साहित्य में आर्य उनको कहा जाता था जो सम्मानित, आदरणीय अथवा उच्च पदस्थ थे। उच्च वंश के लोग भी आर्य माने जाते थे। उत्तर वैदिक और वैदिकोत्तर साहित्य में आर्य से ‘ऊपर के उन तीन वर्णो का बोध होता था जो द्विज(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) कहलाते थे। शूद्रों को आर्य की कोटि में नहीं रखा जाता था। यह ब्राह्मणवादी अवधारणा प्राचीन भारत में चलती रहीं। आर्य को स्वतंत्र समझा जाता था और शूद्र को परतंत्र।’’

यह अवधारणा इसलिए प्रचलित है कि लोकश्रुत इसी तथ्य पर सबकी हामी है। सवर्णवादी विशेषतया इन बातों को भारी तवज़्जों देते हैं। जबकि शूद्यों को ये खलकामी प्रथा/परम्परा उन दिनों भी बिल्कुल नहीं जमती थी। वे प्रकृतिपूजक थे। उन्हीं की उपासना को वे देवत्व-ग्रहण करने का बीजगुण अथवा बीजधर्म मानते थे। आज भी आदिवासियों में यही लोकाचार प्रचलित है। लेकिन वास्तव में है क्या? आदिवासी मुख्यधारा के समाज से बहिष्कृत हैं। आदिवासी जन प्रारंभ से ही प्रकृतियोंपासना में लीन रहे और जंगल को ही अपना वास्तविक गेह मान लिया। उनके लिए मुख्यधारा का समाज कभी प्रिय नहीं रहा। वे अपनी चेतना को प्रकृतिप्रदत संस्कार से आजीवन गढ़ते रहे जिसे हम आज भी उसी रूप में अधिकांशतः देखते हैं। जबकि शूद्यों ने आर्यो से लोहा ली। उनके मान्यताओं को चुनौती दी और अपनी जगह मुख्यधारा के वर्ण-समाज में बनाई जिनकी श्रेष्ठता/उच्चता को दरकिनार करते हुए आर्य महापण्डितों ने उन्हें ‘शूद्र’ के रूप में मान्यता दी। उन्होंने अपने लिखे में कथित शूद्रों(शूद्यों) को नीच/निम्न बताया है; किन्तु वास्तविकता तो यह है कि अपने ही लिखे की विवेचना उन्होंने उनके समक्ष भिन्न प्रकार से की होगी, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं है। सचाई तो यह थी कि जिस कार्यें को करने में आर्यजन विफल थे या जिनकी ओर वे प्रवृत्त नहीं थे; उनको उन्होंने जानबूझककर उपास्य अथवा पूजनीय बना दिया। वे उनका मौखिक गुणगान या कहें स्तुतिगान करने लगे। आर्यजनों ने सायासतः अपने सभी आडम्बर एवं पाखण्ड को स्वयंसिद्ध नियमों-विधानों में ढाला और उसे अनिवर्चनीय भी घोषित कर दिया। यह सबकुछ आसानी से संभव हो सका क्योंकि वे उन्नत औजारों-शस्त्रों से लैस बाहरी कबिलाई समाज के लोग थे जिनकी भाषा भी भारतीय नहीं थी। वे सभी हिन्द-यूरोपियन भाषा बोलते थे। 
 
भलमनसाहत अथवा आमजन के साथ छल भारत की विधान-परम्परा है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। यह राजनीति आज के सन्दर्भ में आसानी से समझी जा सकती है जिसमें राजनीतिज्ञ मौका पड़ने पर किसी दलित बड़े/बुजुर्ग या दलित चिन्तक/नेता का पैर पड़ने या उन्हें सराबोर गले लगाने से भी नहीं हिचकते हैं....
 
*इसी शीर्षक से लिख रहे अपनी पुस्तक में राजीव रंजन प्रसाद

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