Wednesday, August 20, 2014

माननीय कुलपति को एक शोधार्थी का विदाई-पत्र

परमआदरणीय कुलपति महोदय,
नमस्कार!

श्रीमान्!

पिछली दफ़ा नए ‘वाइस-चांसलर’ की काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में नियुक्ति
बड़े ही लोकतांत्रिक ढंग से की गई थी। इस बार भी होगी; क्योंकि यह एक
प्रक्रिया है जिसके पराक्रम से हमसब अवगत हैं। पिछली मर्तबा बड़े उत्साह
से मैंने इस ‘खोज प्रकरण’ की ‘आॅनलाइन रपट' लिखी थी। इसके बदले में हमें
प्रो. लालजी सिंह यानी आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नवनियुक्त कुलपति
के रूप में पदभार ग्रहण करते हुए मिले। आपके आते ही ख़बरों में यह चर्चा
‘प्याली के तूफान’ की तरह हम विद्यार्थियों के बीच तड़का मारते दिखी कि अब
तो इस विश्वविद्यालय का कायाकल्प सौ फिसदी संभव है। पिछले कुलपति महोदय
इस विश्वविद्यालय को ‘सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय’ की ऊँचाई पर टांग(?) कर
गए थे; लगा नवागंतुक कुलपति प्रो. लालजी सिंह इसे सचमुच ज़मीन पर
उतारंेगे। हमारे लिए सोच लेना आसान है, किन्तु आपके लिए हमारे सोचे
अनुरूप कर पाना कितना कठिन; इसकी बानगी मैं अपने परास्नातक पाठ्यक्रम
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता के उदाहरण से देना चाहता हूँ जो कि घोषित
रूप से विश्वविद्यालय का ‘प्रोफेशनल कोर्स’(?) है। हमने इस सम्बन्ध में
‘प्रोपर चैनल’ से कई बार मिन्नत-दरख़्वास्त की, रिरियाए और अंत में
हार-दांव मान चुप्पी भी साध ली। यह हमारी सीमा थी, लेकिन इसे होनहारी
कहना श्रेयस्कर है। हमारा अपना मानना था कि प्रयोजनमूलक हिन्दी
पत्रकारिता आज जिस अवस्थिति में है उसका एक मुख्य (हानि)कारक इसके प्रति
सही सोच एवं संतुलित दृष्टि का सर्वथा अभाव होना है; यदि इसमें उपयुक्त
बदलाव की गूँजाइश बनती है, तो यह प्रोफेशनल कोर्स आने वाले दिनों में
अपनी लोकप्रियता के उच्चतम शिखर पर काबिज़ होगा।

हमारी माँगे थी:

1.      प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता पाठ्यक्रम के लिए योग्य अध्यापकों की
यथाशीघ्र नियुक्ति की जाये जिसके लिए तीन पद यूजीसी द्वारा स्वीकृत/घोषित
है; लेकिन नियुक्ति-प्रक्रिया पिछले तीन साल से लम्बित है।
2.      इसे हिन्दी विभाग में स्वतन्त्र अनुभाग के रूप में विकसित करना जिसमें
कक्षाएँ, हाॅल, सेमिनार-कक्ष, व्याख्यान कक्ष, स्वतन्त्र पुस्तकालय
उपलब्ध हो।(यह अनुरोध स्वतन्त्र तो नहीं; केन्तु विभा के मुख्य अंग के रूप में
मान ली गई और कल ही इसका उद्घाटन हुआ)
3.      सभी कक्षाओं को ‘प्रोजेक्टर’ और ‘पीपीटी’ की आधुनिक सुविधा से लैस
किया जाए ताकि हम न सिर्फ समय के साथ सही तालमेल बिठा पाये बल्कि हिन्दी
पत्रकारिता की दृष्टि से यह पाठ्यक्रम अपनी उत्कृष्टता का मिसाल भी पेश
कर सके।
4.      यहाँ दाखिला लिए विद्यार्थियों के लिए सलाना ‘कार्यशाला’ और
‘संगोष्ठी’ के आयोजन का समुचित प्रबन्ध हो; ताकि हम अपने भाषिक-विधानों
और भाषिक ज्ञान-सम्पदा को व्यावहारिक अंतःदृष्टि और बाह्यदृष्टि के सहमेल
संग बाँध/जोड़ सके।

महोदय, मुझे खुशी एवं प्रसन्नता हुई कि मैंने इस पाठ्यक्रम से सर्वप्रथम
‘जनसंचार एवं पत्रकारिता’ विषय के अन्तर्गत 'नेट/जेआरएफ' परीक्षा
उत्तीर्ण किया। सोचा, अब श्रीमान्!  कुलपति जी से अपनी योग्यता का हवाला
देकर इस पाठ्यक्रम के बारे में गंभीरतापूर्वक और संवेदनशील हो कर विचार
करने के लिए राजी कर सकूंगा....लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हमारे सारे
प्रयास खाली हाथ लौटे। हमें हर मौके पर निराश किया गया। आपसे सीधे मिलने
और बात करने पर कितनी पाबन्दी है इस सच से आप खुद भी वाकिफ़ होंगे। हम
हमेशा ‘प्रोपर चैनल’ की राह तकते रहे....और आज आप इस विश्वविद्यालय में
अपना कार्यकाल पूरा कर जा भी रहे हैं।

महोदय, यह सच है कि हम माननीय कुलपति महोदय के उन कार्यों से आह्लाद
महसूस कर रहे हैं जिसकी आपने नींव रखी है...उनका उद्घाटन किया है। ये
सकरात्मक, विकासमूलक और प्रगतिशील चीजें हमारी आँख में है जिसे आपकी
इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति द्वारा पूरा किया जा सका है। जैसे-साइबर
लाइब्रेरी, ट्रामा सेन्टर, बीएचयू अस्पताल सम्बन्धी चिकीत्सीय सुविधा और
उपलब्धता में अभिवृद्धि, मंदिर का सुन्दरीकरण, चैराहों का सौन्दर्यीकरण,
अन्यान्य निर्माण कार्य....। पर प्रश्न है कि फिर हम और हमारे पाठ्यक्रम
को क्यों इस कदर आपके अनदेखेपन/अजनबीपन का शिकार होना पड़ा है। मैं खुद
व्यक्तिगत स्तर पर शोध-सम्बन्धी कार्य में जीजान से जुटा रहा हूँ। मैंने
पहली बार हिन्दी विभाग में शोध-पत्र वाचन और प्रस्तुति का नवाचारी माॅडल
रखा जिसकी विडम्बना यह रही कि एक के बाद कोई ‘फाॅलोआप’ नहीं मिला। इन सब
के बावजूद यह सचाई है कि हम विद्यार्थी  ‘प्राग स्कूल’, ‘टोरेंटो स्कूल’,
शिकागो स्कूल’, ‘फ्रैंकफूर्त स्कूल’ इत्यादि के अन्तराष्ट्रीय मानकों से
लड़ने-भिड़ने की पूरी दमखम और ताकत रखते हैं। एक वैज्ञानिक और बहुआयामी
व्यक्तित्व के धनी कुलपति जी से हमारी अपेक्षा इसी संघर्ष की चेतना में
सहयोग पाने का था।

खैर, यह मेरा आपको प्रेषित दूसरा ई-मेल है। पहला तब भेजा था जब हमारे
विभाग के एक सुयोग्य शोध-छात्र की मृत्यु शोध-कार्य के तनाव भरे माहौल की
वजह से हो गई थी; और मैं चाहता था कि आप उनके श्रद्धांजलि भेंट में
उपस्थित हो कर हमसे सकारात्मक संवाद स्थापित करें; हमारी आवश्यकताओं एवं
कठिनाइयों को सुने....पर यह सुअवसर हमें नहीं मिला और न ही आपकी ओर से
कोई जवाब ही आया। किन्तु इस घड़ी आप जब इस विद्यालय से विदा ले रहे
हैं...हम समस्त अपेक्षाओं और अपनी नाराजगियों को दरकिनार करते हुए आपका
आभार व्यक्त करते हैं।
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विष्वविद्यालय
वाराणसी।
-----------------------------------------------

No comments:

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...