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सिर्फ उन्हीं को
जो मेरे बच्चों का नाम जानते हैं!
सिर्फ उन्हीं को
जो मेरे बच्चों का नाम जानते हैं!
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| 'आई नेक्सट' से साभार |

ओह!
ऐसे बदेलगा समाज! ऐसे दूर होगी सामाजिक असमानता और वर्ग-विभेद! हम ऐसे में
मानवीयता के दर्शन और इंसानियत का साक्षात्कार कराएंगे। हम कैसे पढ़े-लिखे
लोग हैं? कैसा समाज गढ़-रच रहे हैं या रचने-गढ़ने की सोच रहे हैं? विद्याा का
मंदिर अगर वधस्थली हो जाएं; हमारे अन्दर सही और ग़लत का विवेक पैदा करने
वाले ही यदि भ्रष्टाचार के उद्गम-स्थल बन जाएं, तो क्या होगा इस समाज का?
क्या गति ही हमारे प्रगति का मानक है; उसका नीति-निर्धारक है। क्या स्मार्टफोन और ट्वीटर से 
पिछड़े इलाके से अपने मेहनत के बूते शहरी दहलीज पर आये हम जैसे छात्रों के
लिए यह डगर बेहद कठिन है। हर जगह एक ही बात-‘इट्स यूओर प्राॅब्लम!’ सुनाई
देता है। हम विद्यार्थी जो अपने प्रतिभा के बलबूते छात्रवृत्ति पाते हैं;
पढ़ाई के साथ-साथ अपना पूरा परिवार पालते हैं और किसी जरूरतमंद की आगे बढ़कर
सहायता भी करते हैं। हमारी इच्छा यह कभी नहीं रही कि हमारे पास धन-दौलत इफ़रात
हो, लेकिन हमने हमेशा चाहा है कि हम सबका कल खुशहाल हो और हमारे नौनिहाल
सुरक्षित। लेकिन अवसर की असमानता आधारित इस समाज में हम आर्थिक भेदभाव के
भारी शिकार हैं। हमारे बच्चे महंगे स्कूल में नहीं पढ़ते हैं क्योंकि
हमारी चाहत ही ऐसी नहीं है। हमारी इच्छा तो यह है कि हम जिस हक़-हकूक के
काबिल-योग्य हैं; उतना अधिकार हमें मिले ही मिले। लेकिन अफसोंस! सरकारी
निजाम और अधिकारियों के आगे हम
अपना माथा बार-बार नवाते हैं; याचना और मन्नत करते हैं तो हमारे अकाउंट
में पैसे आते हैं; दस्तख़्त कर अधिकारी हमारा कागज आगे बढ़ाते हैं। इसके
बावजूद हम अपने बच्चों में महात्मा गांधी और मदर टेरेसा का सेवा-भाव भरने
के सदिच्छुक बने रहते हैं। लेकिन इन घटनाओं से हमारा भीतर से टूटना लाजिमी है। हमारा भयग्रस्त होना
जायज़ है। हम खौंफजदा इसलिए नहीं हैं कि हम इसके आसान शिकार बनते हैं।
दरअसल, मुख्य चिंता यह है कि आज पूरा भारतीय परिवेश ऐसे ही असुरक्षा-बोध के
साये में जी रहा है और सबकी घिग्घी बंधी हुई है; बोलती बंद है।
कुल के बावजूद हम आशाधारी भारतीय हैं। प्रचारवादी राजनीति के विपरीत भारतीय सुरों में लोकराग गाने वाले लोग। श्रमशील हाथों से अपने कल का भविष्य गढ़ने वाले लोग। सही अर्थों में ‘मेक इन इंडिया’ की रचना करने वाले लोग। अर्थात् अपार कष्टों और बेपनाह दुःखों को सहकर भी हम जीने की उम्मीद नहीं छोड़ते हैं। हमें विश्वास है कि जब तक पृथ्वी पर हरियाली बची हुई है। समन्दर में पानी शेष है, आसमान बादलों से घिरा और हवाओं के चलने का वह गवाह बना हुआ है; हम बचे रहेंगे। क्योंकि हमें पूरा भरोसा है कि जब क्रूरता का अंत होता है; तानाशाही ख़त्म होता है तो मनुष्य को भी सांप की तरह पेट के बल जमीन पर लोटने को बाध्य-विवश होना पड़ता है; चाहे वह कितना भी विषधर या विषैला क्यों न हो? 
Rajeev Ranjan | Sat, Sep 13, 2014 at 11:45 AM |
| To: career@gail.co.in | |
--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...